साक्षात्कार

1. आपको लेखन-क्षेत्र में काम करने की प्रेरणा कहाँ से और कब मिली? विशेष रूप से लघुकथाओं ने कैसे प्रेरित किया?
रेखा जी, लेखन की कोई परम्परा हमारे घर में नहीं रही। युवा-मन को कोई आकर्षण शीघ्र ही बाँध लेता है। बस कोई उत्प्रेरक उसे रास्ते में मिलना चाहिए। कई बार परिवेश भी निर्णायक भूमिका का निर्वाह करता है। व्यक्ति का मन, सोच, संवेदना और कोई ऐसा प्रसंग, जो उसे अपनी ओर खींच ले जाए। एस.डी. कॉलेज अम्बाला छावनी में हमारे हिंदी के प्राध्यापकों ने साहित्य के प्रति एक आकर्षण पैदा किया। फिर एक दिन मेरा युवा मन एक ट्रक से कुचले व्यक्ति को देखकर बड़ा विचलित हुआ…और तीन पंक्तियों की यह कविता सहज ही प्रस्फुटित हुई –
“वक्त एक ट्रक है
चालक जिसका शराबी है
न जाने भीड़ में से
किसे कब कुचल डाले। ”
यह सन 72 की बात है, जब मैं बी.ए. द्वितीय (ऑनर्स) का विद्यार्थी था। फिर‘सरिता’ में इस कविता के छपने से मन उमंग में बल्लियों उछलने लगा। मेरे लिए यह ऐतिहासिक घटना थी। शायद तब भविष्य में लेखन-क्षेत्र में काम करने की नींव पड़ना शुरू हो गई थी। दूसरी प्रेरणा अम्बाला छावनी में ‘इंग्लिश बुक डिपो’ का होना मानो एक वरदान था। एम.ए. करते हुए शाम को वहाँ खड़े-खड़े कई किताबें उलटता-पलटता। उनकी उदारता और सदाशयता का अनजाने में यह प्रभाव पड़ा कि कई किताबों सहित ‘धर्म-युग’, ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ और ‘सारिका’ जैसी पत्रिकाओं के पन्ने पलटने की आदत हो गई थी। शैलेश मटियानी की लम्बी कहानी ‘चील’ वहीं पढ़ी और लक्ष्मीकान्त वैष्णव की ‘लोग’ लघुकथा सन 75 में ‘धर्मयुग’ में पढ़कर तो बहुत प्रभावित हुआ। यद्यपि तब इसका प्रतीकार्थ ज़रा भी समझ में नहीं आया, किन्तु ‘लोग’ लघुकथा में बात कहने की अद्बुत कला से मैं बड़ा प्रभावित हुआ। हालाँकि दिल्ली निवासी मेरे मामाजी, लिपि-विज्ञान के विद्वान डा. ओमप्रकाश भाटिया ‘अराज’ उन दिनों सुंदर गीत लिखा करते थे, किन्तु छान्दस रचनाओं की ओर मेरा झुकाव कभी नहीं हुआ। ‘सारिका’ में लघुकथाएँ नियमित रूप से आती थीं। युग-बोध से प्रेरित इन लघुकथाओं को पढ़कर मेरे लिए उनके आकर्षण से बचना बड़ा कठिन था। सन 1979 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में मैं एम.फिल. कर रहा था, तब लघुकथाकार पृथ्वीराज अरोड़ा वहां दफ्तर में सहायक के पद पर थे। सन 79-80 में उधर पृथ्वीराज अरोड़ा की शानदार लघुकथाएँ ‘सारिका’में छपतीं और पत्रिका में उन्हें पढ़कर फिर अपने सामने उसके लेखक पृथ्वीराज अरोड़ा को पाता। उनकी रचनाओं, यथा –‘दया’, ‘दुःख’, विकार’, ‘कथा नहीं’ आदि ने मुझ पर जादू का-सा असर किया। फिर क्या था, लघुकथा-लेखन में मेरे प्रयास तेज़ हो गए। दिल्ली स्थित ‘सारिका’ कार्यालय में लघुकथा के उन्नायक रमेश बत्तरा से मिलने पर यह आग और भड़क गई। उसका परिणाम आपके सामने है।
2. लघुकथा की प्रवृत्ति क्या है?
प्रवृत्ति को विकास की दिशा, रूख या झुकाव के रूप में देखा जा सकता है।
साहित्य सदा अपने सामाजिक सन्दर्भों और परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में ही रचा जाता है। समकालीन लघुकथा एक सहज आन्दोलन के रूप में सत्तर के दशक में धमाके के साथ सामने आई। इसके पीछे तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां थीं, जिस कारण युवा आक्रोश और असंतोष को खुलकर अभिव्यक्ति मिली। बीसवीं सदी के आठवें दशक से इक्कीसवीं सदी के दो दशकों तक के लघुकथा-साहित्य को देखा जाए, तो उसकी प्रमुख प्रवृत्ति प्रतिरोध की रही है। इस प्रतिरोध का स्वरूप प्रारंभ में पैरोडीमूलक लघुकथाओं के रूप में मिलता है। विसंगति का मजाक उड़ाना, स्थितियों को उपहास के साथ जोड़कर प्रस्तुत करना इसके प्रमुख आयाम हैं। सन अस्सी-पिचासी तक पैरोडीमूलकता की प्रवृत्ति क्षीण हो गई थी। फिर प्रतिरोध का रचनात्मक रूप धीरे-धीरे उभरने लगा और लघुकथा को गंभीर और सार्थक दिशा मिली। वास्तव में प्रतिरोध की आवश्यकता के कारण ही लघुकथा का आन्दोलन उभरकर आया। इस प्रतिरोध की भी अनेक दिशाएँ हैं, जिनमें स्त्री-पक्ष और पारिवारिक घरातल सबसे प्रबल पक्ष है। प्रतिरोध के सामजिक और (कुछ सीमा राजनीतिक धरातल भी उभरकर आए हैं। प्रतिरोध की इस चेतना के पीछे परम्परागत जीवन-दृष्टि की जड़ता को तोड़ने का उपक्रम और बेहतर समाज का सपना सक्रिय रहा है।
एक अन्य दृष्टि से देखें, तो हिंदी लघुकथा में व्यंग्य की प्रवृत्ति सबसे अधिक मिलती है। शोषण, अराजकता, भ्रष्टाचार, राजनीतिक जुमलेबाजी, विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त पाखण्ड – इन सब पर लघुकथा-लेखकों ने अपनी रचनाओं में कहीं चुटकी ली है, तो कहीं विस्फोटक मुद्रा अख्तियार की है। व्यंग्य की यह प्रवृत्ति अभिव्यक्ति की आवश्यकतानुसार विसंगति, विडंबना, विद्रूप आदि से मिलकर सामने आती रही है। इस प्रवृत्ति के विभिन्न आयामों और उनकी विशेषताओं का अध्ययन किया जा सकता है। हरिशंकर परसाई की लघुकथाओं में हास्य का प्रयोग भी व्यंग्य के उच्चतर उद्देश्य के लिए किया गया है, जबकि शरद जोशी व्यंग्य में भी पैरोडी का प्रयोग करते हैं।
वैचारिक धरातल पर साहित्य का विश्लेषण करते हुए उसमें द्वंद्व की जरूरत और महत्व को रेखांकित किया जाता रहा है। द्वंद्व किन्हीं दो वर्गों, विचारों या पक्षों की टकराहट के कारण उभरता है। एक दृष्टि से द्वंद्व को साहित्य का स्थायी भाव माना जा सकता है। लघुकथाओं में द्वंद्व आरम्भ से रहा है। प्रेमचंद की श्रेष्ठ लघुकथा ‘बाबाजी का भोग’ देख लें, जिसमें कुटिलता की जीत होती है। द्वंद्वात्मकता का उत्कर्ष देखना हो तो हरिशंकर परसाई का साहित्य पढ़ना चाहिए। उनकी ‘संस्कृति’, ‘बदचलन’ आदि अनेक रचनाएँ इसी द्वंद्व से अनेकविध निखार पाती हैं। ’संस्कृति’ लघुकथा वैचारिक टकराहट को सृजनात्मक व्यवहार में बदलने का प्रतिमानक उदाहरण है। इधर लघुकथा में द्वंद्व के साथ आकारगत विस्तार की प्रवृत्ति भी उभरी है, यद्यपि इन दोनों का कोई आपसी सम्बन्ध नहीं है। द्वंद्व या भिन्न दृष्टिकोण की टकराहट को कम शब्दों में कहने के लिए लेखकीय कौशल की अधिक जरूरत पड़ती है।
3. कथा-साहित्य में लघुकथा के अवदान पर आपके क्या विचार हैं ?
कथा-साहित्य में उपन्यास और कहानी जितनी समृद्ध और लोकप्रिय है, उसके समक्ष लघुकथा कहीं नहीं ठहरती, फिर भी इसमें गंभीर और साहित्यिक लेखन की एक धारा निरंतर प्रवाहमान रही है। हम बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में राम प्रसाद विद्यार्थी (रावी) के ‘मेरे कथा-गुरु का कहना है’(दो भाग) और ‘रावी की परवर्ती लघुकथाएँ’, अयोध्या प्रसाद गोयलीय के, भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘गहरे पानी पैठ’ और ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’आदि चार लघुकथा-संग्रह, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर का लघुकथा-संग्रह ‘आकाश के तारे, धरती के फूल’, सुदर्शन का ‘झरोखे’, जगदीशचंद्र मिश्र के ‘मिटटी के आदमी’ आदि आठ लघुकथा-संग्रह बोधकथाओं से लघुकथा तक की यात्रा के दस्तावेज़ हैं। इस सन्दर्भ में कथा-सम्राट प्रेमचंद की, यथार्थ-भूमि पर संस्थित, लगभग पच्चीस लघुकथाओं को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। विष्णु प्रभाकर ने तीन लघुकथा संग्रह –जीवन पराग, आपकी कृपा है, कौन जीता कौन हारा – के बाद ‘सम्पूर्ण लघुकथाएँ’(2009)नाम से अपना संग्रह देकर लघुकथा-साहित्य को समृद्ध किया। हरिशंकर परसाई आरम्भ से ही यथार्थपरक लघुकथाएँ लिखते रहे, जो राजकमल प्रकाशन से छपी ‘परसाई रचनावली’ के दूसरे खंड में ‘लघुकथाएँ’ शीर्षक से संकलित हैं।
समकालीन दौर में लघुकथा-साहित्य में किए अवदान को, सुविधा के लिए, हम दो भागों में रख सकते हैं। एक तो उपन्यास और कहानी के प्रतिनिधि लेखकों की लघुकथाएँ हैं। इनमें चित्रा मुद्गल का, भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित, लघुकथा-संग्रह ‘बयान’है, असगर वजाहत का लघुकथा-संग्रह ‘मुश्किल काम’ है, विष्णु नागर के संग्रह ‘ईश्वर की कहानियाँ’ और ‘बच्चा और गेंद’ हैं। और भी अनेक प्रमुख कवियों और कथाकारों ने अपनी रचनाओं से लघुकथा की समृद्धि के द्वार खोले हैं। इनमें उदय प्रकाश, उदयन वाजपेयी, रवीन्द्र वर्मा, सूरज प्रकाश, अवधेश कुमार, मुकेश वर्मा आदि अनेक रचनाकार हैं। दूसरे वर्ग में मुख्य रूप से लघुकथाएँ लिखने वाले प्रतिनिधि लेखक हैं। इनमें भगीरथ, सतीश दुबे, रमेश बत्तरा, चित्रा मुद्गल, विक्रम सोनी, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, कमल चोपड़ा, माधव नागदा, चैतन्य त्रिवेदी, हरभगवान चावला आदि बीसियों लेखक हैं, जिनकी रचनाएँ लघुकथा-साहित्य की यात्रा के अनिवार्य पड़ाव हैं।
लघुकथा-साहित्य में अपने समय का सच कहीं आक्रोश, कहीं व्यंग्य, तो कहीं नये प्रयोगों के साथ अर्थ को शक्तिशाली रूप में व्यंजित करके कहा गया है। यहाँ बड़े आशय की रचनाएँ भी हैं, तो यथार्थ के सूक्ष्म पक्षों को भी वाणी दी गई है। लघुकथा की शैल्पिक और भाषिक क्षमता के अनेक आयाम इस क्षेत्र के प्रतिनिधि लेखकों की रचनाओं में उजागर हुए हैं।
4. क्या लघुकथा के माध्यम से नैतिक मूल्यों को उजागर किया जा सकता है ? क्या यह शिक्षा प्रदान करने वाली होती है?
लघुकथा में नैतिक मूल्यों को व्यक्त करने की क्षमता है। किन्तु समकालीन दौर में ऐसी आदर्शपरक लघुकथाएँ कम लिखी जा रही हैं। कभी दृष्टान्तों के रूप में ऐसी कथाएँ लिखी जाती रहीं, जो अत्यंत लोकप्रिय भी हुईं, जैसे ‘पंचतंत्र’ की कथाएँ। लघुकथाओं में नैतिक मूल्यों की रचनाएँ मुख्यतः विष्णु प्रभाकर की कलम से निकली हैं। इसकी एक झलक सुकेश साहनी में भी मिलती है। साहित्य अपने परिवेश से अपरिहार्य रूप से प्रभावित-प्रेरित होता है। समकालीन दौर में ऐसी रचनाएँ लघुकथा की मुख्य प्रवृत्ति के रूप में स्थान नहीं बना सकतीं।
लघुकथाएँ या कोई भी विधा, वर्तमान दौर में, सीधे-सीधे शिक्षा प्रदान करने वाली नहीं होती। प्राचीन और मध्यकाल में नीतिकाव्य शिक्षा-प्रदायक ही होते थे। संस्कृत में तो भर्तृहरि का ‘नीतिशतक’ सुप्रसिद्ध है ही, महाभारत में भी ‘विदुर नीति’ बहुचर्चित रही। हिदी में रहीम या वृन्द का काव्य इसी श्रेणी का है। बिहारी का दोहा –“नहिं पराग नहिं मधुर मधु… ” अन्योक्ति के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने का प्रसिद्ध उदाहरण है। किन्तु अब ऐसे काव्य नहीं लिखे जाते। अब लघुकथाएँ भी प्रकारांतर से ही शिक्षित करती हैं, ताकि रचना की साहित्यिकता भी बनी रहे। विधाओं का साहित्य शक्ति का साहित्य है, अतः बेहतर मान-मूल्यों को यथावश्यक कलात्मकता के साथ उभारने पर रचना की प्रभविष्णुता और प्रभाव – दोनों बढ़ेंगे। नैतिक मूल्यों के स्थान पर यदि जीवन-मूल्यों की बात करें, तो हिंदी लघुकथा में ऐसा पर्याप्त साहित्य मौजूद है।
5. लघुकथा की लघुता और शब्द-संख्या के सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ?
लघुकथा की लघुता का सम्बन्ध उसके बाह्य आकार से तो है ही, साथ ही यह उसका अंतर्वर्ती गुण भी है। उसकी संवेदना और सरोकार, उसका शिल्प, उसकी रचना-प्रक्रिया आदि सभी पक्ष साहित्य के किसी अन्य रूप की ही भांति लघुकथा में भी बराबर महत्त्व रखते हैं, किन्तु अधिक सघन रूप में होने के कारण लघुकथा के बाह्य आकार को ‘लघु’ बनाए रखने में योगदान देते हैं। लघुकथा लघु यथार्थ-बोध या विपन्न यथार्थ-बोध की रचना नहीं है।
साहित्य के किसी रूप को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। क्या कविता या कहानी को शब्द-संख्या में बाँध सकते हैं या कभी बाँधा गया है ?कविता एक पंक्ति से लेकर कहीं तक भी जा सकती है। कहानी अढ़ाई-तीन पृष्ठों से लेकर पचास-साठ पृष्ठों तक जाती है। वस्तुतः लघुकथा की लम्बाई को शब्दों के द्वारा सीमित नहीं किया जा सकता। इसकी संरचना ही इसकी लम्बाई का निर्धारण करेगी। लघुकथा में एकरेखीयता और एकतानता होती है। किन्तु वह पाठक को एक पूर्ण रचना होने का एहसास अवश्य कराए। इसलिए लघुकथा कभी-कभी एक वाक्य में ही पूर्ण हो जाती है, तो कई बार उसे पांच-सात सौ शब्दों से भी आगे जाना पड़ता है। रमेश बत्तरा की एकवाक्यीय लघुकथा ‘कहूँ कहानी’ बड़ी चर्चित रही। नासिरा शर्मा की ‘पनाह’ और लन्चेन्बा मीतै की मणिपुरी लघुकथा ‘विलाप’ भी ऐसी ही रचनाएँ हैं। ’विलाप’ का अवलोकन करते हैं – “गणतंत्र ने अनुताप-भरी आवाज़ में रोते हुए कहा, “हे जगत के स्वामी, मुझे बन्दूक की नोंक से थोड़ी देर के लिए उतार दीजिए। ” और सात-आठ सौ या उससे भी अधिक शब्दों की लघुकथाएँ देखनी हों, तो विष्णु प्रभाकर की ‘तर्क का बोझ’, ’हरिशंकर परसाई की ‘बदचलन’ या चित्रा मुद्गल की ‘पाठ’ और ‘बाज़ार’ जैसी लघुकथाओं का पाठ किया जा सकता है।
रेखा जी, आकार के भ्रम को दूर करने के लिए मैंने दो विपरीत आलेख लिखे हैं –लघुकथा के लघु आकार में संरचनाएं’ और ‘लघुकथा के बड़े आकार में संरचनाएं’। इस प्रकार बाह्य आकार की दृष्टि से लघुकथा को तीन भागों में विभाजित किया है – एक सौ शब्दों तक, सौ से पांच सौ शब्दों तक और पांच सौ से एक हजार या इससे भी अधिक शब्दों की लघुकथाएँ। तीनों ही भागों में श्रेष्ठ लघुकथाएँ मिलती हैं –इस विभाजन का प्राथमिक उद्देश्य यही सिद्ध करना था।
6. लघुकथा के मानदंड पर काफी बहसें दिखाई देती हैं। आपकी दृष्टि में लघुकथा के क्या मापदंड हैं ?
रेखा जी, आपका अभिप्राय शायद श्रेष्ठ लघुकथा की खूबियों से है। साहित्य की विधा कोई भी हो, उसकी श्रेष्ठता के सामान्य मापदंड भिन्न नहीं होते, विधागत विधान की बात अलग है। लघुकथा की बात करें तो उसमें एक कथा-सूत्र अथवा विचार-सूत्र रहना चाहिए। वह सूत्र चाहे क्षीण रूप में हो, उसीके इर्द-गिर्द लघुकथा बुनी जाती है। सामान्य धरातल पर बात करें, तो लघुकथा में यथार्थ का वस्तुपरक चित्रण होना जरूरी है। दूसरा आयाम है, समाज के चित्रण में मूल्यबोधक दृष्टि का होना। रचना जब मूल्य-चेतना से संचालित होगी, तो समाज पर गहन प्रभाव डालने की क्षमता अर्जित कर लेगी। इसके लिए रचनाकार भी मूल्यचेता अवश्य होना चाहिए। इस प्रभाव को और प्रभावशाली और शक्तिशाली बनाने के लिए तीसरा पक्ष सृजनात्मकता का है, जिससे कोई रचना वास्तव में रचना बनती है। सृजनात्मकता के भी अनेक आयाम हैं। लघुकथा के सन्दर्भ में कहें, तो घटित को यथारूप रखना उसकी सृजनात्मकता को नष्ट करने जैसा है। यह वस्तुपरक चित्रण भी नहीं है। लेखकीय दृष्टिकोण, मूल्य-बोध, उसकी प्रक्रिया में यथावश्यक कल्पना का प्रयोग, साहित्यिक प्रविधि या शैल्पिक युक्ति का यथावश्यक प्रयोग उसे रचनात्मक सौन्दर्य प्रदान करता है। इन उपकरणों के बल पर लेखक सौन्दर्य रचता है, जिसका पाठक पर बेहतर प्रभाव पड़ता है।
7. लघुकथा के रचना-विधान पर आपका क्या कहना है ?आपकी लघुकथा-कृतियों के बारे जानकारी प्रदान करें।
रेखा जी, लघुकथा के रचना-विधान पर बात कुछ पंक्तियों में नहीं की जा सकती। उपन्यास, और कहानी की भांति लघुकथा के तत्वों के नाम तो वही हैं, किन्तु उनके व्यवहार और उनके समाहार में पर्याप्त भिन्नता है। लघुकथा में कथानक, पात्र, संवाद, देश-काल वातावरण, भाषा और शिल्प के अलावा शीर्षक को भी बहुत महत्व दिया जाता है। किन्तु एक लघुकथा में सभी तत्व वैसे नहीं मिलते, जैसे कि कहानी में। कई बार कोई तत्व अन्य तत्व के घटक के रूप में दिखाई पड़ता है। लघुकथा में कई बार कोई भी संवाद नहीं होता, तो कई बार केवल संवादों में ही लघुकथा कही जाती है। परिवेश कई बार संक्षेप में, आवश्यकतानुसार प्रस्तुत किया जाता है, हालाँकि लघुकथा में परिवेश-चित्रण को मान्यता नहीं दी जाती। कई बार रचना के उपकरण ही उसके परिवेश की भूमिका निभाते हैं। इसी प्रकार परम्परागत रूप से पात्र लघुकथा में हों ही, यह भी अनिवार्य नहीं। कई बार विचार-प्रधान लघुकथा में कोई विचार या परिवेश ही उस रचना के पात्र होते हैं, जिनके माध्यम से लघुकथा विकसित होती है। यह सब रचनाकार के कौशल पर निर्भर करता है। लघुकथा में तात्विक अन्विति और समन्वय का बहुत महत्व है। यदि हिंदी एवं अन्य भाषाओँ की श्रेष्ठ लघुकथाओं को केंद्र में रखकर देखें, तो अधिकतर रचनाएँ किसी संवेदना-सूत्र अथवा विचार-सूत्र की कथात्मक प्रस्तुति लगेंगी। लघुकथा का कोई एक मूलभूत तत्व निश्चित नहीं किया जा सकता। लेखकीय दृष्टिकोण, लघुकथा की प्रकृति, रचनात्मक कौशल आदि से कोई एक तत्व रचना-विशेष में अधिक सक्रिय भूमिका का निर्वहन करता है।लघुकथा विस्फोटक मुद्रा में ही खुले अथवा उसका विस्फोटक अंत ही हो या कि अंत में पञ्चलाइन अवश्य हो – ऐसा भी कोई विधान नहीं बनाया जा सकता।विविध प्रकार की लघुकथाओं का विवेचन-विश्लेषण करते हुए स्पष्ट हो जाता है कि इन नियमों को लघुकथा का रचना-विधान बना देने से बहुत-सी श्रेष्ठ रचनाएँ लघुकथा के दायरे से बाहर रह जाएँगी ।तो ऐसे आभूषण का क्या लाभ, जो कान को ही फाड़ दे।इसी प्रकार लघुकथा को ‘क्षोभजनक घटनाओं पर आश्रित विधा’ मानना भी उसे सीमित कर देने के अपराध समान है।यह तथ्य सत्तर-अस्सी के दशक की लघुकथाओं के बारे तो बहुत सीमा तक सच है, किन्तु लघुकथा उससे बहुत आगे जा चुकी है।इसी प्रकार यह कथन भी वास्तविकता से दूर है कि लघुकथा जीवन की दैनंदिन और कहानी में अनदेखी हो गई घटनाओं पर आधारित होती है।ऐसे विचार किसी विधा के साहित्य को समग्रत, निरंतरता और गंभीरता से न देखने के कारण व्यक्त किए जाते हैं।वास्तव में किसी विधा के रचना-विधान को निश्चित करने के लिए लम्बी अवधि का श्रेष्ठ साहित्य वांछित होता है।’कथा’ का तत्व तो महाकाव्य, नाटक आदि विधाओं में भी रहता है।प्रश्न तो उसकी प्रस्तुति का, शिल्प का, रचना-विधान का है।तात्विक अन्विति की दृष्टि से लघुकथा सघनतम कथा-रचना है।लघुकथा में, कहानी की भांति, गठन, तीव्रता और प्रभावान्विति का बहुत महत्त्व रहता है।
जहाँ तक मेरी लघुकथा-कृतियों का सम्बन्ध है, अभी तक की मेरी कुल 43 में से 24 पुस्तकें लघुकथा से सम्बंधित हैं। इन्हें सात श्रेणियों में रखा जा सकता है –
क. लघुकथा-संग्रह: ‘जंगल में आदमी’(1990) और ‘अँधेरे में आँख’(2010, तीन संस्करण)
ख. चयन: ‘क्या क्यूँ कैसे@लघुकथा’(2018, चार संस्करण), ’अशोक भाटिया की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल’(2016, संपादक:मधुदीप) और ‘सच के आर-पार’(2021, चयन:बलराम अग्रवाल)।
ग. आलोचना:’समकालीन हिंदी लघुकथा’(2014, हरियाणा ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित)
‘लघुकथा:आकार और प्रकार’(2019, दो संस्करण)
‘लघुकथा में प्रतिरोध की चेतना’(2021)
घ. विमर्श:परिंदे पूछते हैं (2018) इसमें लघुकथा-लेखकों द्वारा लाइव पूछे गए लगभग सौ प्रश्नों के उत्तर हैं।
च. संपादन: कुल बारह पुस्तकें, जिनका विवरण इस प्रकार है-
(1) श्रेष्ठ पंजाबी लघुकथाएँ(1990) यह किसी भी हिंदीतर भारतीय भाषा की प्रतिनिधि लघुकथाओं के
चयन और संपादन की पहली पुस्तक है।
(2) पैसठ हिंदी लघुकथाएँ (2001) यह पुस्तक पाठ्यक्रम हेतु तौयार की गई है। इसमें कुल चौदह लघुकथा-लेखक शामिल हैं- प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, रवीन्द्र वर्मा, भगीरथ, सतीश दुबे, रमेश बत्तरा, चित्रा मुद्गल, पृथ्वीराज अरोड़ा, बलराम, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया और सुकेश साहनी। इनके अतिरिक्त चालीस पृष्ठ की ‘हिंदी लघुकथा की यात्रा’ नामक आलेख भूमिका के रूप में शामिल है।
(3) निर्वाचित लघुकथाएँ (2005, चार संस्करण) यह हिंदी लघुकथा की संपूर्ण यात्रा को दर्शाने का प्रयास है। इसमें 110 प्रमुख लेखकों की 150 लघुकथाएँ चार उपभागों में शामिल हैं।
(4) विश्व साहित्य से लघुकथाएँ(2006, तीन संस्करण)
(5) नींव के नायक (2011) हिंदी लघुकथा के विषय में एक धारणा यह बनी हुई है कि यह तो आठवें दशक की ही देन है। इस भ्रम को तोड़ने के लिए यह शोधात्मक पुस्तक तैयार की, जिसमें 29 लेखकों की, सन 1970 से पहले की, 177 लघुकथाएँ शामिल हैं। इनमें प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, जगदीशचंद्र मिश्र, सुदर्शन, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, आनंद मोहन अवस्थी जैसे प्रतिनिधि साहित्यकार हैं।
(6) पड़ाव और पड़ताल खंड 6 (2014) इसमें लघुकथा के छह वरिष्ठ रचनाकारों – अयोध्याप्रसाद गोयलीय, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, जगदीशचंद्र मिश्र, प्रेमचंद, विष्णु प्रभाकर और हरिशंकर परसाई की प्रतिनिधि लघुकथाएँ और छह विद्वानों द्वारा उनका आलोचनात्मक अध्ययन किया गया है।
(7) पंजाब से लघुकथाएँ (2015) इसमें पंजाब की पंजाबी, हिंदी और उर्दू की प्रतिनिधि लघुकथाओं को स्थान दिया गया है। पाकिस्तान के पंजाब से भी दस लेखकों की उर्दू रचनाओं का अनुवाद शामिल किया गया है।
(8) हरियाणा से लघुकथाएँ (2016)
(9) देश-विदेश से कथाएँ (2017, तीन संस्करण)इस शोधात्मक कार्य में 19 भाषाओँ के 83 लेखकों की 122 प्रतिनिधि लघुकथाएँ शामिल हैं। ये भाषाएँ हैं- अरबी, फ़ारसी, उर्दू, चीनी, रूसी, जर्मन, अंग्रेजी, स्पेनिश, जापानी, हिब्रू, बांग्ला, हिंदी, पंजाबी, तेलुगु, मलयाली, मराठी, गुजरा ती, कश्मीरी और मैथिली।
(10) सियाह हाशिए (मंटो की लघुकथाएँ, 2018) ’सियाह हाशिए’ नाम से मंटो की 32 लघुकथाएँ (अफसांचे) मिलती हैं। इनकी दो कहानियों के शीर्षक से तेईस (क्रमशः 11 और 12) और लघुकथाएँ प्राप्त हुई हैं, जो इस संकलन में शामिल हैं।
(11) कथा-समय:दस्तावेजी लघुकथाएँ (2020, तीन संस्करण) तीन भूमिकाओं के साथ इसमें समकालीन हिंदी लघुकथा के प्रतिनिधि और सक्रिय आठ रचनाकारों की प्रतिनिधि लघुकथाओं को (‘तार सप्तक’ से आधार लेकर) प्रस्तुत किया गया है।
(12) प्रतिरोध(2021) प्रतिरोध के छह आयामों-स्त्री-समाज, समाज, परिवार, राजनीति, अंधविश्वास और दलित सन्दर्भ– से सम्बंधित, 113 लेखकों की 159 लघुकथाओं का संकलन।
छ. दिवंगत, उपेक्षित रचनाकारों का लघुकथात्मक अवदान:
(1) सवाल-दर-सवाल(2022) रमेश बत्तरा की लघुकथाओं, आलेखों, साक्षात्कार तथा उनके अवदान के विश्लेषण और मूल्यांकन पर केन्द्रित पुस्तक।
(2) इस सदी की उम्र(2022)विक्रम सोनी की लघुकथाओं, आलेखों, साक्षात्कार तथा उनके अवदान के विश्लेषण और मूल्यांकन पर केन्द्रित पुस्तक।
ज. पंजाबी में
प्रतिनिधि पंजाबी मिन्नी कहानियाँ: ‘धुंद चीरदी किरन’ नाम से पंजाबी के बारह प्रतिनिधि लेखकों की मिन्नी कहानियों का संचयन।
8. कथा और लघुकथा में क्या अंतर है ?आपकी नज़र में श्रेष्ठ लघुकथा में क्या गुण होने चाहिएं ?
कथा और काव्य प्राचीन साहित्य-रूप हैं। जिस प्रकार काव्य से, बाद में, प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य के वर्ग बने और प्रबंध से महाकाव्य और खंडकाव्य की शाखाएँ निकलीं, इसी प्रकार कथा से उपन्यास, कहानी और लघुकथा नामक साहित्य-प्रकार बने हैं। ’कथा’ शब्द भारतीय परिप्रेक्ष्य में बहुतव्यापकता लिए है। यह धर्म के क्षेत्र में भी बहुत प्रयोग में आता है। सामान्यतः कह्यानी के लिए ‘कथा’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है। उपन्यास की कहानी को भी कथा कह दिया जाता है। लघुकथा को भी ‘कथा’ कह दिया जाता है। वास्तव में ‘कथा’ शब्द कहानी और लघुकथा को जोड़ने का काम करता है। लघुकथा, कथा-कुल की एक शाखा है।
9. आपके लेखन-कार्य, आपकी नौकरी और आपका सामाजिक जीवन इन तीनों में आप संतुलन कैसे बनाते हैं?
वास्तव में लेखन-कार्य के स्रोत तो घर, नौकरी और सामाजिक जीवन से ही प्राप्त होते हैं। सक्रिय संपर्कों के बिना लेखन में जड़ता और पिष्टपेषण आने की आशंका रहती है। अमृतलाल नागर सुबह से शाम बाहर रहते थे, तो प्रेमचंद शाम के समय घर के दरवाज़े के पास बैठकर आने-जाने वालों से बतियाते थे। इतना अवश्य है कि दायित्वों के इस तिकोन में किसी को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। मन में प्राथमिकताएँ तय कर लें, तो उसके अनुसार भी कुछ-न-कुछ उपेक्षित रह ही जाता है। काम स्थगित भी होते हैं और कई बार दोबारा उन कार्यों को संपन्न करने का अवकाश भी नहीं मिल पाता। अपनी बात करूँ, तो साहित्य अन्य दोनों मोर्चों से कुछ पीछे रहा है, परिवार को हमेशा प्राथमिकता रही है। फिर भी, एक आग धधकती रही है भीतर, जिसके चलते साहित्य भी साथ चलता रहा है। समाज और साहित्य-दोनों के अपने दबाव होते हैं। मैं तो खिलाड़ी रहा हूँ और यह चौथा मोर्चा भी काफी हद तक सम्हाले रखा है। इस मोर्चे ने बाकी तीनों मोर्चों पर तन्मयता से अपनी जिम्मेवारी निभाने के लिए ‘उत्प्रेरक’ का भी काम किया है।
10. नए उभरते लघुकथाकारों को आप लेखन-सम्बन्ध में क्या सलाह देना चाहेंगे ?
वैसे तो लघुकथा में आ रहे नए लेखक अनेकविध सजग हैं, फिर भी आपके माध्यम से उनसे कुछ संवाद अपेक्षित है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ज्ञान के तीन स्रोत बताए हैं – भ्रमण, श्रवण और पठन। उभरते लेखकों के सन्दर्भ में इनका अर्थ लगाएं, तो भ्रमण यानी समाज से सक्रिय संपर्क। हर क्षेत्र, हर वर्ग से संवाद करें। उनकी सोच और तकलीफों को जानें। समाज और जीवन को फेसबुक और व्हात्सप्प पर नहीं, आपने सामने जीवंत रूप में देखें-समझें। एक एक्टिविस्ट की बातों और साहित्य में इसी कारण इतनी जीवन्तता होती है, कि वह समाज से सक्रिय और निरंतर संवाद बनाए रखता है। दूसरा है, श्रवण यानी हर तबके के लोगों को, लेखकों और आलोचकों को धैर्य और गंभीरता से सुनना। तीसरा है – पठन। यहाँ प्रश्न उठता है कि इतने साहित्य में से क्या पढ़ें और क्या छोड़ें ? तो पढ़ने के लिए किसी विधा या भाषा की सीमा से ऊपर उठकर हर विधा का श्रेष्ठ साहित्य गंभीरता से पढ़ें। हिंदी में विश्व के श्रेष्ठ साहित्य का अनुवाद उपलब्ध है। सिर्फ लघुकथाएँ पढ़ना अपनी सीमाएं बनाने जैसा है। कहानियों, कविताओं और नाटकों के साथ-साथ अन्य विधाओं के श्रेष्ठ साहित्य को पढ़ना भी बहुत जरूरी है। इससे समाज बारे आपकी व्यावहारिक समझ विस्तार पाती है, आपको साहित्यिक प्रविधियो की जानकारी मिलती है, संवेदनात्मक विस्तार के साथ आप समाज से जुड़ाव महसूस करते हैं, दृष्टिकोण व्यापक और परिपक्व होता है। हल्का, संवेदनहीन, जड़ और दिशाहीन साहित्य पढ़ने से बचें। लिखना इस प्रक्रिया की अंतिम पायदान है। लिखने और उसके बाद की तमाम क्रियाओं में ग्लेमर से बचें। प्रशंसा सुनकर कुप्पा न हो जाएँ। दूरगामी लक्ष्य के साथ लेखन में आएं। बेहतर समाज के सपने के साथ लिखें, ईमानदारी से लिखें, किसी दबाव या भय के बिना लिखें। छपने की जल्दबाजी से बचें।
रेखा जी, आपने साक्षात्कार के बहाने मुझे अपनी बात कहने का अवसर प्रदान किया, इसके लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ।

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