हिंदीतर भारतीय लघुकथाएँ

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डा.अशोक भाटिया

(इस आलेख में हिंदी के अतिरिक्त पंजाबी की मिन्नी कहानी पर भी टिप्पणी शामिल नहीं की गई, क्योंकि उस पर ‘संरचना’ में पहले ही मेरे दो आलेख आ चुके हैं। )

भारतीय संविधान में मान्यता-प्राप्त बाईस भाषाएँ हैं। इनमें से जिन भाषाओँ में लघुकथा-साहित्य लिखे जाने की जानकारी है, यह आलेख उन पर केन्द्रित है। इसमें हिंदी के साथ-साथ पंजाबी की मिन्नी कहानी को भी शामिल नहीं किया जा रहा, क्योंकि उस पर ‘संरचना’ में दो आलेख अलग से आ चुके हैं।

 असमिया

 असमिया में श्रेष्ठ साहित्य की समृद्ध परम्परा मिलती है। अब तक असमिया के तीन साहित्यकारों को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है। ये हैं –वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य (1979), इंदिरा गोस्वामी (2000) और नीलमणि फूकन (2021)। असमिया में लघुकथा को ‘छितिगल्प’ कहते हैं। अरुणज्योति बोरा के अनुसार असमिया में लघुकथाएँ कम लिखी जाती हैं और उनका स्वरूप भी हिंदी से कुछ भिन्न है। असमिया के लघुकथा लेखकों में भूपेन हजारिका, लक्ष्मीकांत बैजबरुआ, महिम बरा आदि ने ही प्रमुख रूप से लघुकथाएँ लिखी हैं। भूपेन हजारिका की ‘लोहित के लाल’ लघुकथा में असम के विकास और वहां के लोगों की सोच और संघर्ष की एक झलक पेश की गई है। जिस तरह पंजाबियों ने हरियाणा में आकर अपने व्यापार का सिक्का जमाया है, इसी तरह असम में (उल्फा उग्रवादियों के बावजूद)मारवाड़ियों ने अपना आधार बनाया है। इस रचना में मूल असम के नौजवानों की मारवाड़ी-विरोधी सोच को एक चायवाला अपने विवेक से सही लाइन पर ले आता है। इनकी ही ‘अगुआ’ और ‘भरी थाली’ अन्याय के प्रतिकार की लघुकथाएँ हैं। ‘भरी थाली’ रचना में असम-आन्दोलन में, गोलियों का शिकार हुए नरेन सैकिया की माँ को लोग जगह-जगह मंच पर बिठाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। आखिर वह ऐसे नेताओं को कहती है –“नरेन अपने लक्ष्य के लिए लड़ा था। तुम लोग उसकी लाश की आग पर अपनी रोटी सेंकना चाहते हो, चले जाओ। ” इनकी ही ‘उग्रवादी’ लघुकथा एक जरूरी सवाल उठाती है। मानवीय धरातल पर एक युवक को एक रात पनाह देने के जुर्म में मास्टर मजूमदार को पुलिस पकड़ लेती है। अगले दिन सरकार तो उल्फा उग्रवादियों से बातचीत कर पुनर्वास की घोषणा कर देती है, पर लेखक सोचता है – “मास्टर के भविष्य का क्या होगा ?क्या मास्टर को भी उग्रवादी बन जाना चाहिए ?”

उर्दू

उर्दू की जड़ें बेशक पाकिस्तान में ज्यादा हैं, लेकिन भारतवर्ष में उर्दू के श्रेष्ठ लेखकों की संख्या बहुत बड़ी है। फ़िराक गोरखपुरी (1969), कुर्रतुल एन हैदर (1989), अली सरदार जाफरी (1997) और अख़लाक़ मोहम्मद खान ‘शहरयार’ (2008) को तो भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है।

 लघुकथा को उर्दू में ‘अफ्सांचा’कहते है। सआदत हसन मंटो, राजेन्द्र सिंह बेदी, जोगिन्दर पाल और रतन सिंह उर्दू के प्रमुख भारतीय लघुकथा-लेखक हैं। मंटो की यथार्थपरक लघुकथाएँ भारत-पाक विभाजन की विसंगतियों, निकृष्ट इंसानी सोच को ‘तंज़’ (व्यंग्य) की बुनावट के साथ रचती हैं। ‘सियाह हाशिए’ की इन 32 रचनाओं के अतिरिक्त भी विभिन्न विषयों पर मंटो की 23 लघुकथाएँ मिलती हैं। ‘करामात’, ‘बंटवारा’, ‘बेखबरी का फायदा’, ‘पेशबंदी’आदि उनकी बहुचर्चित लघुकथाएँ हैं। ‘करामात’ में पुलिस से बचने के लिए एक आदमी लूटी हुई शक्कर की बोरियां कुएँ में डालने लगता है, साथ ही खुद भी चला जाता है। वह मर जाता है। शक्कर की वजह से कुएँ का पानी पीने पर मीठा होना ही था, लेकिन –“उसी रात से उस आदमी की कब्र पर दिए जल रहे हैं। ”यह अंधविश्वास की मिसाल है। ‘बेखबरी का फायदा’ लघुकथा संवेदनहीनता की मिसाल है, जो बच्चे को भी नहीं बख्शती। गोलियाँ खत्म हो जाती हैं, फिर भी हत्यारा पिस्तौल का मुँह बच्चे की तरफ मोड़ देता है। देखें –

“यह क्या करते हो?”

“क्यों?”

“गोलियाँ तो खत्म हो चुकी हैं। ”

“तुम खामोश रहो….इतने-से बच्चे को क्या मालूम?”

 उर्दू ज़ुबान की खूबी है कम लफ़्जों में व्यंग्य को उभारना। ‘पेशबंदी’ अफसांचे में जहाँ वारदात होते दिखाई जाती है, वहां-वहां सिपाही को भेजने की क्रिया चलती रहती है। नई जगह पहरा देने का हुक्म आने पर सिपाही कहता है –“मुझे वहाँ खड़ा कीजिए, जहाँ वारदात होने वाली है। ”केवल आठ पंक्तियों में पुलिस की नाकामी, मिलीभगत आदि की तरफ असरदार तरीके से संकेत कर दिया गया है।

रतन सिंह ने उर्दू में यथार्थपरक लघुकथाओं की परम्परा को आगे बढ़ाया। उनकी ‘लकड़हारा और परी’ लघुकथा बताती है कि बाह्य सौन्दर्य भौतिक समृद्धि पर अधिक निर्भर करता है। जंगल की परी लकड़हारे पर मोहित हो विवाह का प्रस्ताव रखती है। उसकी तंग हालत को जानकर परी उसे धन-धान्य से भर देती है। दो महीने बाद लौटकर वह फिर अपना प्रस्ताव दोहराती है। लकड़हारा इनकार करते हुए तर्क देता है, जो रचना की अंतिम पंक्तियाँ हैं –“भरपेट खाने और अच्छे कपड़े पहनने के बाद मेरी अपनी बीवी तुमसे ज्यादा खूबसूरत हो गई है। ”यह रचना पृथ्वीराज अरोड़ा की प्रसिद्द लघुकथा ‘दया’ का स्मरण करा देती है। एजाज़ परवाना नन्दौरी की रचना ‘डिप्लोमेट’ में शादीशुदा स्त्री और पुरुष छुप-छुप कर मिलते हैं। पुरुष, दुनिया को बेवकूफ बनाने के लिए, शादी का प्रस्ताव रखता है। स्त्री के डरने पर पुरुष का तर्क है –“मेरी पत्नी और तुम्हारा पति शरीफ़ हैं। वे दोनों हमारी तरह डिप्लोमेट और निडर नहीं हैं। वो बदनामी से डरते हैं, उनकी ये बुजदिली ही हमारी कामयाबी की गारंटी है। ”

ओड़िया

ओड़िया के चार प्रसिद्द साहित्यकारों को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है। ये हैं –गोपीनाथ मोहंती (1973), सच्चिदानंद राउतराय (1986), सीताकांत महापात्र (1993) और प्रतिभा रे (2011)।

 ओड़िया में लघुकथा को ‘अणु गल्प’, ‘मिनी गल्प’, ‘आभास गल्प’ आदि नामों से जाना जाता है। इनमें से अभी कोई एक नाम सर्व-स्वीकृत नहीं हुआ। इसकी पहली पीढ़ी में यदुनाथदास महापात्र, अध्यापक विश्वरंजन, जगदीश मोहंती, सुशीलेंदु प्रमुख हैं। अच्युतानानद और फकीरमोहन सेनापति तो वहां के भारतेंदु ही हैं। अध्यापक विश्वरंजन की लघुकथा ‘अग्निवृत्त’ अपनी प्रतीकात्मकता के कारण, तो ‘ऋतु परिक्रमा’ लघुकथा काव्यात्मक निर्वाह के कारण गहन अर्थगर्भी बन गई हैं। यदुनाथदास महापात्र की लघुकथा ‘शून्य के भीतर’ विचारप्रधान रचना है। कोणार्क के मंदिर की मिथुनरत मूर्तियों के सन्दर्भ में, दार्शनिक धरातल पर, स्त्री-पुरुष के संवाद पाठक को नया सूत्र थमा जाते हैं। स्त्री निकटता चाहती है;पुरुष का इनकार है। स्त्री का सवाल है –“मंदिर के भीतर जो संभव हुआ, वह मंदिर के बाहर असंभव कैसे होगा ?” उनके मिलन के बाद प्रश्न उठता है _ “सत्य क्या है ?मंदिर के भीतर देवता या मंदिर के बाहर की नग्नता ?”इसका उत्तर मंदिर के बाहर की मूर्तियाँ देती हैं –“मंदिर के भीतर के सूर्य को देखने की आवश्यकता नहीं, बाहर के सूर्यालोक में देखो। ”

 इधर ओड़िया लघुकथा में अनेक नए लेखक उभरकर आए हैं। कइलोश पट्टनायक की रचना ‘अन्नपूर्णा’ प्रकृति में व्याप्त प्रेम और विश्वास को रेखांकित करती है। मौचुमी पक्षी पलाश का शहद पी जाता है। फिर उससे कहता है –“तुझे तो पीड़ा होती होगी। अपने पास आने के लिए तू मना भी नहीं करती !” पलाश का जवाब रचना का कथ्य है –“मुझ पर तुझे विश्वास है , तब तो तू आता है न !मेरी पीड़ा क्या तेरे विश्वास से बड़ी है ?” ओड़िया में कुछ दार्शनिक धरातल की लघुकथाएँ भी लिखी जा रही हैं। ईप्सिता षडंगी की रचना ‘नमकीन’, कोरोना में माँ को खो चुकी, तीन दिन से भूखी परी, पिता से पूछती है कि आँसू नमकीन क्यों होते हैं ?” पिता बताते हैं –“पानी और नमक का मिश्रण होता है आँसू…पानी तो स्वच्छ, नैसर्गिक होता है। हमारा दुःख ही है जो आँसू को नमकीन बना देता है। ”

अन्य लेखकों में गोपीनाथ मोहंती, प्रतिभा राय, सदानंद त्रिपाठी, मौसुमी परिडा, राजेन्द्र राउल, अभिय बेज, कृष्ण कुमार महंती आदि आते हैं। (‘अन्तरंग’ पत्रिका के आधार पर)

कन्नड़

जनश्रुति के आधार पर दक्षिण भारत कि भाषाएँ ‘पंचद्राविड’कहलाती हैं। इनमें तमिल, तेलुगु, तमिल और कन्नड़ के अलावा ‘तुलु’ भी शामिल है। ‘तुलु’, वास्तव में कन्नड़ कि ही एक बोली है, जो दक्षिण भारत के अधिकतर भाग में बोली जाती है। कन्नड़ भाषा का साहित्य बहुत समृद्ध है। एक राज्य की भाषा होने के बावजूद कन्नड़ से के.शिवराम कारंत (1977), यू. आर. अनंतमूर्ति (1994), गिरीश कर्नाड (1998)जैसे आठ साहित्यकार अब तक भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं।

माधवी एस.भंडारी के अनुसार कन्नड़ में लघुकथा के लिए ‘नैनो कथा’ शब्द का प्रयोग होता है। लघुकविताओं के लिए ‘नैनो कविता’ शब्द प्रयुक्त होता है।

श्रीनिवास हावनूर की लघुकथा ‘मौन का कल’ पति के अपराध-बोध पर केन्द्रित है। आपसी झगड़े के कारण पति-पत्नी अबोले का प्रयोग करते हैं। बच्ची को बुखार आने पर पत्नी की संवेदना पति और बच्ची दोनों के प्रति वैसी ही बनी रहती है। बच्ची ठीक हो जाती है, पर पति को एहसास होता है –“बेबसी और क्रोध के मारे मेरा सीना फूलने लगा, यद्यपि उसीने बोलना शुरू किया था , पर मुझे लग रहा था कि वह ऊँगली उठा-उठाकर कह रही है, ”तुम ही हारे…तुम ही…। ”

इसी प्रकार सर्वज्ञ की लघुकथा ‘तुलना’ काव्यात्मक शैली में मानवेतर श्रेणी की रचना है। सूर्य की किरण सूर्य को ही बताती है कि दीपक “आपकी तरह विराट होकर भी आपके विपरीत, आत्म-प्रचार की प्रचंडता से कितना मुक्त है!”यह रचना सहज ही हमें योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘फक्कड़ उवाच’ का स्मरण करा देती है।

कश्मीरी

कश्मीरी भी भारत की स्वीकृत 22 भाषाओँ में से एक है। कश्मीरी के लेखक रहमान राही (2004)को भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान से नवाज़ा जा चुका है। कश्मीरी में अमीन कामिल और अख्तर मोहीउद्दीन की कुछ लघुकथाएँ मिलती हैं। अमीन कामिल की रचना ‘फाटक’ में शासन और प्रशासन की संवेदनहीनता दिखाई गई है। कुछ पुलिसवाले बेकसूर गायों को फाटक में डालने ले जा रहे हैं। पूछने पर पता चला कि महाराजाधिराज की सवारी गुजरी तो कुछ गायें राह रोके खड़ी थीं। डी.आई.जी.ने उन पुलिसवालों को मुअत्तिल करने के आदेश के साथ अन्य पुलिसवालों के लिए भी आदेश हुआ कि गायें पकड़ने में लापरवाही करेंगे, तो वे भी सस्पेंड किए जाएँगे। पुलिसमैन के शब्द सुनें –“हम भी ती बाल-बच्चेवाले हैं। ड्यूटी का कोई ठोस सबूत नहीं देंगे तो कहेंगे क्या?हमें कहीं भी कोई आवारा गाय नहीं दिखी, इसलिए इन गायों को जबरदस्ती गौशाला से हांककर लाए…। ”अख्तर मोहिउद्दीन की ‘डल की सैर’ सूक्षम संवेदना की रचना है। बीमार बड़ी बहन फातिमा और रोजी बड़े बूढ़ों की अवज्ञा कर डल की सैर को निकलती हैं। फातिमा को लगता है कि ऐसे बाहर सैर करके वह जल्द ठीक हो सकती है। पर छोटी बहन रोजी पहली बार जान पाई कि उसका पति तो ढलती आयु का है। उसका पति फातिमा की ओर देखता है तो उसका दिल कसैला हो गया –“ऐ खुदा, तू मुझे अच्छा मत कर। ”वह नई विकृति के बजाए रोगिणी रहना पसंद करती है। ”

गुजराती

गुजरती भाषा व साहित्य को अनेक महानायक मिले, जिनमें कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, काका कालेलकर, महात्मा गाँधी आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। गुजरती साहित्य में उमाशंकर जोशी (1967), पन्नालाल पटेल (1985), राजेन्द्र केशवलाल शाह (2001) और डा.रघुवीर चौधरी (2015) को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है। गुजराती लघुकथा के क्षेत्र में मोहनलाल पटेल, विनोद भट्ट और कीर्तिकुमार पंड्या प्रतिनिधि नाम हैं। वर्णनात्मक शैली में वरिष्ठ कथाकार मोहनलाल पटेल ने अनेक स्मरणीय लघुकथाएँ दी हैं। ‘विदाई’ इनकी अत्यंत मार्मिक और विचारोत्तेजक रचना है। भैंस को बेचने पर वह जैसे-कैसे रस्सा तुड़ाकर लौट आती है, एक नहीं, तीन-तीन बार। तीसरी बार गणपत और कुँवर की उसे लौटाने की हिम्मत नहीं होती। भैंस की पीठ पर हाथ फेरती पत्नी को आश्रय के लिए आई बेटी की याद आ जाती है, जिसे हर बार डरा-धमकाकर वापिस भेज देते रहे –“इक ढोर की आवभगत कर रहे हैं, उतनी बेटी के लिए नहीं कर सके। ” बेटी को ससुरालवाले मार देते हैं। पति का स्वीकार-बोध देखें –“हत्यारे तो हम हैं कुँवर। ‘ससुराल ही उसका घर’ कहकर घर आई हुई बेटी को अन्दर न आने दिया। ” रचना देर तक संवेदना और चेतना – दोनों धरातलों पर पाठक के साथ चलती है और मन में घर कर जाती है। ‘बेजान चिट्ठी’ इनकी अन्य मार्मिक रचना है। बेटे द्वारा यांत्रिक ढंग से लिखी चिट्ठी पढ़कर बूढ़ा व्याकुल हो जाता है और पत्नी से सच छिपा लेता है। मृत पुत्र का नाम भी चिट्ठी में था। वह सोचता है –“मैं बेटे का नाम पढ़कर व्याकुल हो गया और उसे लिखने में कुछ न हुआ ?” ‘स्मृति’ लघुकथा में पत्नी, कथावाचक की बताई चीज़ें लाना भूल जाती है, पर प्रेमिका मन्दाकिनी नहीं भूलती। वह कहता है –“स्त्रियाँ किसकी बात याद रखती हैं और किसकी नहीं, यह मुझे अच्छी तरह मालूम है। ” ‘निग्रह’ लघुकथा स्वामी के पाखण्ड को उभारती तो है, किन्तु प्रतीक और सौन्दर्य के फेर में प्रभावशाली नहीं बन पाती। इसी प्रकार ‘सुदामा के तंदुल’ लघुकथा में सुदामा की तरह दीखने वाला आदमी कृष्ण से मिलकर सौ-सौ के नोट देता है और, अंततः, टेंडर अपने नाम करवा लेता है। इसमें साधारण बात में कृष्ण-सुदामा की छौंक से रचना बेहतर नहीं बन पाई।

विनोद भट्ट व्यंग्यात्मक शैली में लघुकथाएँ लिखते हैं। इनकी बहुत-सी लघुकथाएँ मंटो के ‘सियाह हाशिए’ की याद दिलाती हैं। ‘खोया-पाया’ लघुकथा में दुकान लुटने का दुःख व्यक्त करने पर पता चला कि माल पांच हजार का था, जबकि बीमा दो लाख का था। अंतिम पंक्ति है –“तब तो भाई बधाई। ” यह रचना ब्रेख्त की लघुकथा का स्मरण कराती है, जिसमें रचना छपने पर बधाई दी जाती है। पारिश्रमिक मिलने का भी पता चलने पर ‘हार्दिक बधाई’ बन जाती है। ‘शांति-जुलूस’ लघुकथा में बुद्धिजीवियों की ‘सुरक्षा-भावना’ पर व्यंग्य किया गया है। जुलूस तनावग्रस्त इलाके में नहीं, शांत इलाके में निकाला, तो परिचित से पूछने पर बोले –“आदमी को सिर्फ शांति की नहीं, सलामती की भावना भी सिखानी चाहिए। ” ‘परीक्षा’ और ‘शान्ति-अपील’ इनकी अन्य उल्लखनीय लघुकथाएँ हैं। कुछ लघुकथाएँ हलकी भी हैं, चुटकुलेनुमा, जैसे ‘सावित्री सत्यवान’। कीर्तिकुमार पंड्या की लघुकथा ‘आत्मवंचना’ मध्यवर्गीय दोगलेपन को सहजता से उकेरती है। प्राइवेट स्कूल में तनख्वाह से ज्यादा की पावती पर दस्तखत करवाने का शोषण न सह पाने पर दीपक अपना स्कूल खोलता है, तो वही शोषण खुद करने लगता है। लेखकीय पक्ष अंत में है –“उसी समय हवा का एक तेज़ झोंका आया और दीवार पर टेंगा सरस्वती के चित्र वाला केलेन्डर उलट गया। ” वल्लभदास दलसाणिया गुजराती के अन्य प्रमुख लघुकथा-लेखक हैं।

तमिल

तमिल भाषा में तिरुवल्लुवर, अंडाल, कंबन आदि ख्यातिप्राप्त रचनाकार हुए हैं। पीवी अकिलन (1975) और डी.जयकान्तन (2002) को तमिल साहित्य में भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान प्राप्त हो चुका है।

 तमिल में लघुकथा के लिए कोई एक नाम अभी स्वीकृत नहीं हुआ। तमिल-हिंदी अनुवादक के.सुलोचना का मत है कि लघुकथा के लिए तमिल में यद्यपि चिरुकदैकल, चिन्न-चिन्न कदैकल का भी प्रयोग होता है, किन्तु कुट्टीकदैकल ‘अधिक आकर्षक है’ (जैसा उन्होंने फोन पर बताया)। तमिल की लघुकथाएँ मुख्यतः मूल्य-चेतना से संचालित हैं। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी लेखक सुब्रह्मण्यम भारती की रचना ‘कवि और लोहार’ में कवि का अपने गीतों से लगाव दिखाया गया है। जिस प्रकार लोहार को अपने औजारों से लगाव होता है, उसी प्रकार कवि भी अपने गीतों को तोड़-मरोड़कर मनमाने ढंग से गाने पर क्रोधित होता है। भारती का विद्रोही रूप उनकी रचना ‘शास्त्रीजी का धंधा’ में उभरकर आया है। बच्चे की खिलौना-गाड़ी के पहिए टूट गए हैं। पिताजी लगा देंगे –यह कहने पर उसका जवाब है –“मेरे पिताजी शास्त्री हैं। …उन्हें तो कोई धंधा नहीं आता। उन्हें तो सिर्फ आता है कि कोई उन्हें चावल दें, तो वे उसे घर उठा लाएं। ”

 चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य की रचना ‘नीम की तपस्या’ में कडुवी और मीठी नीम के प्रतीक द्वारा स्पष्ट किया गया है कि कडुवे से लोग दूर रहते हैं, जबकि मीठे को पनपने नहीं देते। इनकी ही रचना ‘झुलनी’ में लोक तत्व के समावेश से रचना को शिक्षाप्रद बनाया गया है। अखिलन की रचना ‘बंधन’ पाठक को संकीर्णताओं से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है। युद्ध में एकमात्र बचे कुमार को (मना करने के बावजूद) राजबहादुर पीठ पर लादकर नीचे लाता है। राह में मुठभेड़ होने पर चीनी सैनिक और राजबहादुर मारे जाते है। घर पहुंचकर कुमार अपने नवजात का नाम राजबहादुर रखता है, बेशक यह तमिल नाम नहीं है। इसी प्रकार चूड़ामणि की लघुकथा ‘तारों की छाँव’ में भीख पाने के लिए चालाकी का वर्णन है। मंजरी एस.ईश्वरन की लघुकथा ‘पश्चात्ताप’ ईर्ष्यावश उठाए गलत कदम के सन्दर्भ में एक स्त्री की ग्लानि पर केन्द्रित है, जिसमें घटनाओं की प्रधानता है।

तेलुगु

तेलुगु में लघुकथा के लिए ‘चिन्न कथा’ या ‘कथानिका’ शब्द का प्रयोग होता है। इस भाषा में लघुकथाओं की स्थिति अपेक्षाकृत कमज़ोर है;वह अभी कहानी के संस्कारों से मुक्त नहीं हुई। बलराम अग्रवाल द्वारा चयनित व सम्पादित पुस्तक ‘तेलुगु की मानक लघुकथाएँ’ (2010) की अधिकतर लघुकथाएँ कमज़ोर हैं। वे स्वयं अपने सम्पादकीय ‘लघुकथा:आकार का अनुशासन’ में लिखते हैं –“पाठकों को यदि इस पुस्तक में संकलित अधिकतर रचनाओं की भाषा, शैली अथवा कथ्य-प्रस्तुति लघुकथा जैसी न लगे, तो इसका कारण तेलुगु-लघुकथा का कहानी के संस्कार से मुक्त न हो पाना ही समझना होगा। ” इनको संपादक द्वारा लघुकथा की भाषा देने के प्रयास के बावजूद इसकी अधिकतर लघुकथाएँ प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। इसी पुस्तक में शामिल कुछ श्रेष्ठ रचनाओं में कान्द्रेगुल श्रीनिवासराव की ‘स्पर्श’ और ‘भोज्येषु माता’ तथा वाई के मूर्ति की ‘टैस्ट’ लघुकथा शामिल हैं।

 ‘स्पर्श’ (कान्द्रेगुल श्रीनिवासराव) में पुरुष और स्त्री-स्वभाव को एक ही प्रसंग से बड़े विश्वसनीय तरीके से प्रस्तुत किया गया है। लारी में बैठा शेषगिरि, साथ बैठी स्त्री के सौदर्य को आँखों से पीते-पीते काम-वासना में डूबने लगता है। लेकिन वाहन टकराने से शेषगिरि का धाराप्रवाह बहता खून देखकर उसी युवती ने अपनी चोट से बेपरवाह होकर उसका खून पोंछकर –“धीरज और सांत्वना देते हुए उसने उसके सिर को अपनी छाती में दबा लिया। ”रचना की अंतिम पंक्तियों में बड़ा सन्देश छिपा है-“उसके कोमल स्पर्श को पाकर शेषगिरि ने बलपूर्वक अपनी आँखें खोलीं। माँ की छाती पर सिर रखकर थकान मिटाने-जैसा सुख उसने महसूस किया और बालकों-जैसी दृष्टि से आभारपूर्वक उसे निहारते हुए सहसा अचेत हो गया। ” इनकी ही रचना ‘भोज्येषु माता’ स्त्री के मातृत्व का एक अन्य रूप प्रस्तुत करती है। कामवाली सूरमा पर केन्द्रित आरंभिक पंक्तियाँ देखें –“भूख के कारण आँतें ऐंठ रही थीं। भूख को सहन करने की शक्ति न होने के कारण सूरमा ने अपने दांतों को होंठों से दबाया। ”मालकिन ने उसे रात का बचा खाना दिया, तो पहला कौर खाते ही पति याद आया, जो दुर्घटना में दोनों टांगें गंवाकर बिस्तर पर पड़ा था। सूरमा ने खाना उसके लिए रख दिया। रचना की अंतिम पंक्तियाँ पठनीय हैं –“सूरमा की सहायता से उठ बैठ, उसके लिए लाए खाने को (पति) स्वाद से खाने लगा। तुमने खाया या नहीं…यह भी पूछे बिना, एक कौर के बाद दूसरा खाते उसे देख पहले तो घृणा हुई, किन्तु बाद में सूरमा को वह खाना खाने के लिए माँ पर आधारित बच्चे जैसा लगा। उसकी आँखों में एक प्रकार की विचित्र कान्ति झलकने लगी।

हालांकि सूरमा को आज भी खाना नहीं मिला…वह भूखी ही रह गई। ”

 स्त्री, पुरुष की मानसिकता को खूब जानती है। वाई.के.मूर्ति की रचना ‘टैस्ट’ इसी पर आधारित है। पति श्रीराम के नाम आया किसी सुशीला का पत्र सीता खोलकर पढ़ती है कि कहीं बड़ा जरूरी न हो। पति आकर उसे डांटता और सभ्यता का पाठ पढ़ाता है। लेकिन एक दिन अपनी बहन के घर गई पत्नी, पति को टैस्ट करने के लिए, वासु की तरफ से अपने को पत्र भेजती है। पत्र भेजने वाले का नाम पढ़कर पति शक से भर उठा। अंतिम कुछ पंक्तियाँ देखें –“पतिदेव को नमस्कार। आप अपने उसूल के कितने पक्के हैं, यही देखने के लिए यह एक छोटा-सा टैस्ट था। लेकिन बेचारे इस टैस्ट में पास न हो सके। दुखी न होइए। कम-से-कम अब से अपने उसूल को निभाने का प्रयत्न कीजिए। …”

बांग्ला

भारत में बांग्ला-भाषी लोग लगभग दस करोड़ हैं। साहित्य, संगीत और संस्कृति की दृष्टि से बांग्ला भाषा-क्षेत्र बहुत समृद्ध है। ‘कृत्तिवास रामायण’ पूरे बंगाल में प्रसिद्ध है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त रवीन्द्रनाथ टैगोर और उनकी ‘गीतांजलि’ से कौन अपरिचित है ? ‘गणदेवता’ उपन्यास के रचनाकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय (1966), विष्णु डे (1971), आशापूर्णा देवी (1976), सुभाष मुखोपाध्याय (1991), महाश्वेता देवी (1996), शंका घोष (2016)और शंख घोष (2023)तो भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। इनके अतिरिक्त कवि चंडीदास, चैतन्य महाप्रभु, माइकेल मधुसूदन, ‘आनंदमठ’ के रचनाकार बंकिमचंद्र, ‘देवदास’ आदि अनेक प्रसिद्ध उपन्यासों के रचनाकार शरतचंद्र, साहब बीवी और गुलाम’ तथा ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ जैसे सुप्रसिद्ध उपन्यासों के लेखक विमल मित्र, क्रन्तिकारी कवि नजरुल इस्लाम आदि अनेकानेक साहित्यकारों की भूमि पश्चिम बंगाल साहित्यिक संस्कृति का केंद्र कही जा सकती है।

 बांग्ला में लघुकथा-साहित्य की भी समृद्ध परम्परा मिलती है। वहां लघुकथा को ‘अनुगल्प’ कहा जाता है। बांग्ला के प्रमुख लघुकथाकार चन्दन चक्रवर्ती का मत है –“‘अनुगल्प’ घर के किसी छिद्र में से आने वाले उस प्रकाश के समान है जो हमें विशाल पृथ्वी के तेज प्रकाश से जोड़ता है। यह एक बिंदु में ही विराट का स्वाद मिल जाने जैसा है। ”

रवीन्द्रनाथ टैगोर को बांग्ला अनुगल्प का जनक माना जाता है। चन्दन चक्रवर्ती के अनुसार, प्रमथ चौधरी के पास एक छोटी कहानी भेजकर टैगोर ने लिखा था –“मैंने अपनी रचना का कोई नाम नहीं दिया है…इसे छोटी कथिका कहा जा सकता है। गल्प-सल्प बोलने में क्षति क्या है ?” टैगोर की कुछ अनुगल्पें थीं –प्रथम शोक, सुओरानी की साध, विदूषक, पट, नूतन पुतुल, वांशि, प्रश्न, मेघला दिन आदि।

 बांग्ला लघुकथाओं में दूसरा बड़ा नाम है- बनफूल। जब ‘प्रवासी’ पत्रिका में इनकी ‘अजान्त’ नामक गल्प प्रकाशित हुई, तो इस कथा ने पाठक-जगत को बहुत प्रभावित किया। इनकी कुल 578 कहानियों में 80-90 प्रतिशत अनुगल्पें ही हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं -नीमगाछ, मनू की माँ, बूढ़ी, चिंतामणि, तिलोत्तमा आदि।

वरिष्ठ कथाकार चन्दन चक्रवर्ती की ‘सूअर की कहानी’ इंसानों की बढ़ती जनसंख्या पर तीखी टिप्पणी है। इनकी ही ‘चे गेवारा की प्रतीक्षा में’ रचना एक प्रकार से विप्लवी आइकॉन गेवारा को, सकारात्मक सोच के साथ, श्रद्धांजलि कही जा सकती है। रचना की अंतिम पंक्तियाँ देखें –“लहरें सब वापिस कर देती हैं रे। वे भी वापस आएँगे। पहाड़ की चोटी से, गिरि कन्दरा से। समुद्र चीर कर। देखना, एक दिन ठीक फिरेंगे। ”

 मुरादुल इस्लाम की रचना ‘सूत-कथा’ पेड़ पर बंधे इच्छापूर्ति के धागों पर केन्द्रित है। मजार की देख-रेख कर रहे मुंशी सोचते हैं –“क्या सचमुच इसमें इच्छा पूर्ण करने की क्षमता है ?” उसे लगता है कि आम का पेड़ लोगों के रंगीन सपनों के भार से दुखी है। एक दिन एक बूढ़ी औरत धागे काटने लगती है। पूछने पर बताती है –“बीस सालों से धागा बाँध रही हूँ। अब काट ही लेती हूँ। पेड़ को कष्ट देकर कोई फायदा नहीं। ”

रूपक सान्याल की अनुगल्प ‘कोई और’ सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक रचना है। एक युवक द्वारा तेज़ गति की बाइक से एक वृद्ध को घायल करने पर अतनु ईंट का टुकड़ा उठाकर उसे घायल कर देता है। दरअसल अतनु ने उसके चेहरे पर अन्य कई चेहरों को देखा था, जिनमें मोहल्ले के बदमाश का, एक प्रभावशाली नेता के चेहरे शामिल थे। उन अपराधियों का ध्यान कर ईंट फैंकने के बावजूद वह अब स्वयं को लज्जित अनुभव कर रहा था। मेघना दास की रचना ‘सज़ा’ का वर्णन-सौन्दर्य देखते ही बनता है। वृद्ध परिमल को उनका पुत्र वृद्धाश्रम छोड़ जाता है। दिवंगत पत्नी को वे बार-बार याद करते हैं –“तुम्हारी बात न मानकर पुत्र-प्राप्ति के मोह में फँसा मैं तीन-तीन बार कन्या-भ्रूण का गर्भपात करवाकर जो घोर अपराध किया है, उसुकी सज़ा तो भुगत रहा हूँ मैं। …यह वृद्धाश्रम मानो कारागार है और मैं एक हत्यारा मुजरिम हूँ। मेरे सुपुत्र मुझे भुगतने के लिए यहाँ छोड़ गए हैं। हत्यारे की यह सज़ा अत्यंत नगण्य है। ”

वितस्ता घोषाल की अनुगल्प ‘कन्या दिवस’ भयावह यथार्थ की रचना है। कितने लोग जानते हैं कि फुटपाथ पर रहने वाली दस-बारह बरस की लड़कियों का जीवन कितना नर्क-भरा है और यह भी, कि यह नर्क किनका बनाया-बसाया गया है ?कन्या-दिवस पर मंत्री जी तो उपहार बांटकर चले गए। पर कागज़-प्लास्टिक बनने वाली लड़की से पिछले बरस की तरह उपहार भी वापिस ले लिए जाएँगे। उसे रोज़ एक या दो बार बलात्कार की शिकार होना पड़ेगा, कभी-कभी सामूहिक बलात्कार। पुलिस से लेकर उठाईगीर, मस्तान, हाकर, दादा लोग वगैरा सब इसमें शामिल हैं। वह फुटपाथ की वस्तु है, जो बताती है –“वर्षा में, शीत में, आंधी-पानी में भी रहती हूँ। मैं लड़की जाति हूँ। ” प्रगति मारुति की रचना ‘लड़का किसका ?’ में बच्चे की एक पंक्ति रचना को उदात्त स्तर पर प्रतिष्ठित कर देती है। अदालत में फैसला होना है कि बच्चा किसके पास रहे। वह पहले माँ के निकट जाता है, फिर पिता की तरफ जाने को होता है। पिता के आंसुओं के साथ बेटा भी फूट-फूटकर रोता है। वह फैसला सुनाता है –“बाबा के पास रहने से माँ मरेगी सर। ”यह एक हृदयविदारक और निश्छल वाक्य एक-साथ सभी पात्रों का चारित्रिक उद्घाटन कर देता है। बच्चा वास्तव में माँ और बाबा दोनों के साथ रहना चाहता है।

अशोक राय चौधरी की लघुकथा ‘कोई एक अनागत संध्या’ वास्तव में गागर में सागर भरने का सहज कलात्मक प्रयास है। रचनाकार पचपन हजार दो सौ छह सन की कल्पना करता है, जहाँ भूख मिटाने के लिए केवल सिंथेटिक प्रोटीन और विटामिन के केप्सूल हैं। एक लड़की माइक्रोचिप द्वारा जान गई है कि – “कोई साठ हजार वर्ष पहले पृथ्वी पर सुंदर लोग थे, प्रेम था, भालोवासा था, आवेग था। वन, नदी, पहाड़, झरना, धान के खेत आदि सब कुछ था। रोमियो-जूलियट और लैला-मजनूँ थे। ”लड़की को प्रेम करने की इच्छा होती है;उसके आंसू निकलकर मिट्टी में गिरते हैं। फिर –“साथ ही साथ एक लहलहाता पौधा तैयार हो गया। फूल खिले। चिड़ियाँ चहकीं। तितलियाँ उड़ने लगीं। पोखर, नदी, अर्नी, पहाड़ बनने लगे। ” तभी स्पेस शटल से एक सुंदर युवक आकर लड़की का हाथ पकड़ उसे सीने से लगा लेता है –“और अंत में रचना हुई महान चुम्बन की। ”

बनफूल की रचना ‘नीम का पेड़’ कलात्मक ढंग से गृहलक्ष्मी की घर में स्थिति का वर्णन करती है। नीम के पेड़ का हर कोई अपनी जरूरत के अनुसार प्रयोग करता है। पेड़ अपने एक प्रशंसक के साथ नहीं जा सकता था, क्योंकि जड़ें बहुत नीचे तक जा चुकी थीं। निष्कर्ष है –“उनके घर की गृहकार्य में निपुण लक्ष्मी जैसी बहू की भी यही दशा है। ठीक ऐसी ही। ”

इधर कोलकाता से डा.मार्तंड ने ‘साहित्य त्रिवेणी’ (हिंदी त्रै.) का, बांग्ला अनुगल्प विशेषांक निकाला है।

मणिपुरी

 मणिपुरी में लघुकथाओं की क्षीण धरा मिलती है। इसमें लन्चेन्बा मीतै की एक वाक्य की लघुकथा ‘विलाप’ बड़ी चर्चित रही है.इस मानवेतर रचना में, बन्दूक के साए में जी रहे गणतंत्र की व्यथा-कथा है। देखें-

 गणतंत्र ने अनुताप-भरी आवाज़ में रोते हुए कहा –“हे जगत के स्वामी, मुझे बन्दूक की नोंक से थोड़ी देर के लिए उतार दीजिए। ”

मणिपुरी में इबोहल सिंह कांग्जम ने काफी लघुकथाएँ लिखी हैं. इनकी रचना ‘सब्सिडी ग्रांट’ बताती है कि समाज भ्रष्टाचार का उदाहरण लेकर उसी भ्रष्ट दिशा में बढ़ने में कोई संकोच नहीं करता.मछली-पालन के लिए वेरिफिकेशन करने पर तालाब नहीं मिला, तो वृद्ध को ग्रांट नहीं दी गई. वृद्ध का तर्क देखें –“पीने के पानी तक के लिए अपर्याप्त जगह – पर्वतों की चोटी- पर मछली-पालन हो रहा है तो इसका क्या?”इनकी ही राजनीतिक धरातल की दो लघुकथाएँ दर्शनीय हैं. ‘युद्ध के बाद’ में चुनाव में एक-दूसरे के खून के प्यासे उम्मीदवार तो चुनाव के बाद – “दोनों प्रत्याशी एक-दूसरे से मिलने लगे हैं. वे हाथ जोड़कर नमस्ते करते हैं. साथ बैठते हैं, साथ-साथ खाते हैं, पीते हैं, हँसते हैं. बस, दोनोंके कार्यकर्त्ता अभी तक एक-दूसरे से भेंट नहीं कर सके हैं.” और ‘क्या नहीं कर सकता?’ में बादल सोचता है कि वह बरसे या नहीं. दोनों स्थितियों में राजनेताओं ने बढ़ या सूखे के नाम पर पैसा खाना ही है.और तीसरी स्थितिमें – “अगर थोडा-सा भी बरसूँ तो यूँ ही नकली बाढ़ तो आ ही जाएगी. आदमी क्या नहीं कर सकता?”

 मणिपुरी लघुकथाओं में पात्रों के नामों से भी क्षेत्रीय सुवास महसूस हो जाती है, जैसे –तोलचौ, थम्बौ, तोमचौ, चाओबी, इबोयाइमा आदि.यही बात पूर्वोत्तर की असमिया आदि अन्य भाषाओँ में थोड़ी-बहुत मिलने वाली लघुकथाओं के बारे में कही जा सकती है।

मराठी

मराठी भाषा, साहित्य और सिनेमा के क्षेत्र में, भारत की अग्रणी भाषाओँ में गिनी जाती है। यह महाराष्ट्र और गोवा में बोली जाती है। महाराष्ट्र की एक परिनिष्ठित बोली कोंकणी अब संविधान में पृथक भाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है। मराठी क्षेत्र में संत ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम जैसे ख्यातिप्राप्त संत हुए हैं। इस भाषा के चार साहित्यकारों – विष्णु सखाराम खांडेकर (1974), विष्णु वामन शिरवाडकर (1987), विंदा करंदीकर (2003) और भालचंद्र नेमाड़े (2014) को भारतीय ज्ञानपीठ का प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। इनके अतिरिक्त हरिनारायण आप्टे और वरेरकर मराठी के अन्य प्रतिष्ठित लेखक हैं।

 हिंदी में जिसे कहानी कहते हैं, उसके लिए मराठी में ‘लघुकथा’ शब्द का प्रयोग होता है। वहां लघुकथा के लिए ‘कथिका’ आदि का प्रयोग किया जाता है। हालाँकि सूर्यनारायण रणसुभे का मत है कि मराठी में लघुकथा नाम की कोई विधा नहीं है। उनका आशय संभवतः मराठी में परम्परा के विकसित न होने से है। अस्सी के दशक में रणसुभे ने हिंदी के साथ मराठी में भी लघुकथाएँ लिखीं, जो, उनके अनुसार, ‘अनुभव-कथा’ और ‘लघुत्तम कथा’ नाम से छपीं। उज्ज्वला केलकर ने पिछले वर्षों में मेरी कुछ लघुकथाओं का मराठी में अनुवाद किया, जो ‘कथिका’ नाम से छपा है।

मराठी में वि.स.खांडेकर ने अनेक लघुकथाएँ लिखी हैं। इनमें से अधिकतर रचनाएँ मानवेतर पात्रों के माध्यम से मानवीय स्वभाव को दिखाती हैं। इनकी ‘गुमान’ लघुकथा में सूर्य और घड़ी के वार्तालाप में प्रकृति यानी सूर्य की विजय दिखाई गई है, जबकि घड़ी एक दिन रूक जाती है। सूर्य उसे भी आलोकित कर देता है। ‘ईर्ष्या’ और ‘फूल और पत्थर’ इनकी इसी श्रेणी की लघुकथाएँ हैं।

 उज्ज्वला केलकर ने हिंदी लघुकथाओं का मराठी में निरंतर अनुवाद कर मराठी लघुकथा-साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास किया है। उज्ज्वला की मराठी लघुकथा ‘पेशा’ तफ़सील से बताती है कि राजनीति अब बारहों महीने का पेशा हो गया है –“यहाँ कभी किसी मांग के लिए रैली, कभी किसी बात के समर्थन में रैली और कभी किसी बात के विरोध में रैली। ” रैली के लिए जनता और कार्यकर्ताओं को इकठ्ठा करने का कॉन्ट्रैक्ट चलता ही रहता है। इस सन्दर्भ में वसुधा गाडगिल की रचना ‘आत्मविलय’, अन्तर करवड़े की ‘खुशियाँ’, अनघा जोगलेकर की ‘एहसास’, आशा गंगा शिरढोणकर की ‘कानों सुनी’ और ऋचा कर्पे की ‘यू नेवर नो’ जीवन के विविध पक्षों को सकारात्मक दृष्टि से उकेरने वाली उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।

मलयालम

केरल प्रदेश की भाषा मलयालम में अनेक श्रेष्ठ साहित्यकार हुए हैं। इनमें से जी. शंकर कुरूप (1965)को पहला भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। एस.के.पोट्टेकाट (1980), थकाजी शिवशंकर पिल्लई (1984), डा.एम.टी.वासुदेवन नायर (1995) आदि अन्य पांच मलयाली साहित्यकार इस प्रतिष्ठित सम्मान को प्राप्त कर चुके हैं।

मलयालम में संक्षिप्त कहानी को ‘कुरुंकथा’, छोटी-सी कथा के लिए ‘चेरिया कथा’ और बिलकुल छोटी कथा के लिए ‘तीरे चेरिया कथा’ शब्दों का प्रयोग किया जाता है। हालाँकि मलयालम लघुकथा पर पी-एच.डी.करने वाले रथीश निराला इसे लघुकथा कहना ही ठीक मानते हैं।

मलयालम की पहली लघुकथा ‘साहित्य विनोदिनी’ (मासिक)में 1934 में ई.वी.कृष्णा पिल्लई द्वारा लिखित ‘कुक्कुट युवति’ नाम से आई थी। पी.के.पारक्कटवु ने ‘सन्नाटे का चीत्कार’नामक बहुचर्चित लघुकथा-संग्रह प्रकाशित किया, जिसकी अधिकतर लघुकथाएँ दार्शनिक पुट लिए हुए हैं। डा.पुनत्तिल कुंजब्दुल्ला का संग्रह ‘मिनी कथाएँ’ नाम से आया। इनके अतिरिक्त एम.टी.वासुदेवन नायर, पी.वत्सला, वैकम मुहमद बशीर, तकषी, बैशाखन आदि की कुछ लघुकथाएँ काफी चर्चित रही हैं। मलयालम की अनेक पत्रिकाओं में लघुकथाओं को नियमित स्थान मिलता रहा है। इनमें से ‘इन्नु’, ‘चिल्ला’ और ‘उण्मा’के विशेषांक उल्लेखनीय हैं। डा.आरसु का मत है- “लघुता की भी अपनी समग्रता होती है। ” प्रसिद्ध कथाकार पी.के.पारक्कटवु ने लघुकथा को ‘मौन का चीत्कार’ कहा है। जी मोहन प्रसाद के अनुसार –“लघुकथा के सृजन के लिए बड़ी एकाग्रता और कलात्मक संयम आवश्यक है – पैनी छेनी के समान, बिजली की कड़क के समान, ध्यान-मुद्रा के समान, मौन वेदना के समान वह सहृद के मन में प्रविष्ट होनी चाहिए। ”

 मलयालम की लघुकथाएँ प्रायः इतने छोटे आकार की होती हैं, कि मंटो की लघुकथाओं का स्मरण करा देती हैं।
प्रसिद्ध लघुकथाकार पी.के.पारक्कटवु की अधिकतर लघुकथाएँ प्रयोगधर्मी हैं। इनकी ‘मशीन’ लघुकथा बताती है कि स्त्री के साथ, प्रायः, घर के सामान जैसा व्यवहार होता है। नये घर में रहने के लिए वाशिंग मशीन और फ्रिज की तरह औरत को उतरवाया और –“खाना पकाने और बर्तन मांजने की उस मशीन को उतारकर उन लोगों ने हिफाज़त के साथ रसोई के एक कोने में रखा। ” इसी प्रकार ‘पाजेब’ लघुकथा में जब शादी में पाजेब नहीं दी जाती, तो दूल्हे ने कहा-‘कोई बात नहीं’ और अपने पास संभालकर रखी बड़ी ज़ंजीर से उसे बाँध दिया। इनकी ही ‘सतीप्रथा’ रचना में इंसान पहले बच्चे के पालने के लिए, फिर उसके अलग घर के लिए और अंत में दाह-संस्कार ले लिए कुल्हाड़ी लेकर पेड़ के पास पहुँच जाता है। हर बार चिड़िया का नर-मादा का जोड़ा अपना घोंसला बदलने पर विवश होता है। लेकिन तीसरी बार तो वे इसे अपना अपमान समझते हैं और इंसान को सीख देने के लिए चिता में कूद जाने का निश्चय करते हैं। अंतिम पंक्तियाँ हैं –“उसी शाम, दोनों चिड़ियाँ धधकती चिता में कूद पड़ीं। मनुष्य ने इस आहुति से एक ही पाठ सीखा – जीवन की तरह, मृत्यु में भी जीवन-साथी का साथ जरूरी है। ‘और इस तरह सतीप्रथा आरम्भ हो गई। ” पी.वत्सला की लघुकथा ‘शीलावती’ में स्त्री-जीवन में सुबह से शाम तक कभी ख़त्म न होने वाले घर के काम के बीच उसे धर्मराज द्वारा स्वर्ग को चलने के प्रस्ताव को भी ठुकराना पड़ता है। घर साफ़ करना, नाश्ता तैयार करना, रात को खाने का ‘कूटका’ साफ़ करना और शाम को चौथी बार धर्मराज के आने पर शीलावती का कथन-“मेरे पीछे मत आना। दीया जलाने का समय है। पतिदेव के लिए रात का खाना तैयार करना है। ” धर्मराज को कहना पड़ा –“स्वर्ग तेरे नसीब में नहीं। ”उसने कहा, “तू तो हर दिन इस धरती के नरक में रहने को विवश है। ” गृह-कार्यों के प्रति निष्ठा का यह रूप सहज ही ‘स्त्री कुछ नहीं करती!’ (अशोक भाटिया) लघुकथा का स्मरण करा देता है। एन.उन्नी की रचना ‘सनातन’ में सनातन धर्म और उसके पीछे छिपे स्वार्थ को वाणी दी गई है। रचना का आरम्भ देखें-“श्रद्धालुओं के भाव असली आलू से भी अधिक गिरने लगे तो भगवान का चिंतित होना स्वाभाविक था। ”वर्षा की चाह में विगत वर्ष 51 किलो शुद्ध घी का दीपक जला था, पर सेठों ने उसमें एक किलो मिलावट कर दी थी। अबकी बार एक सौ एक किलो का लालच दिखा रहा है पानी। पानी के लिए सर्वस्व निछावर करने वाले करोड़ीमल की निस्स्वार्थ आवाज़ सुनने के लिए पुजारी तरस रहे थे, पर वे बोले-“बस अबकी बार बचा लीजिए। पानी गिरा, तो हम बर्बाद हो जाएँगे हुजूर। सूखे के लिए नलकूपों का जो ठेका मिला है, वह बारह करोड़ का है। ”

इसी प्रकार बालकृष्णन की ‘अग्नि-प्रवेश’, एन.उन्नी की ‘कबूतरों से भी खतरा है’, ‘कुत्ता’ आदि अनेक लघुकथाएँ, डा.पुनत्तिल कुंजब्दुल्ला की ‘शिक्षालय’, एस.के.पोट्टेकाट की अत्यंत संवेदनशील रचना ‘ऊँट’आदि का पाठ करना भी बहुत जरूरी है।

मैथिली

मैथिली मुख्य रूप से बिहार में बोली जाती है। यह बिहार के सबसे बड़े क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। मिथिला-क्षेत्र में बिहार के दरभंगा, मधुबनी, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, बेगूसराय, खगड़िया, सहरसा आदि के साथ नेपाल के तराई-क्षेत्र के जनकपुर, विराटनगर आदि कुछ भाग भी शामिल हैं। इनके अतिरिक्त कोलकाता, अहमदाबाद, पटना आदि में इनकी बड़ी संख्या है। झारखण्ड की राज्यभाषा और नेपाल की दूसरी राज-भाषा मैथिली है। सन 1947 तक यह मिथिलाक्षर में लिखी जाती थी, बाद में इसे देवनागरी लिपि में लिखा जाने लगा। इस कारण इन्हें हिन्दीभाषी भी समझ लिया जाता है। इसे बोलने वालों की संख्या सरकारी आंकड़ों के अनुसार तीन करोड़ और लेखकों के अनुसार छह करोड़ है, जबकि सच्चाई इनके बीच है। अंगिका और बज्जिका बोलियाँ मैथिली से अलग होने के बाद मैथिली बोलने वाले कम हो गए हैं।

 मैथिली के सुप्रसिद्ध कवि विद्यापति ‘मैथिल-कोकिल’ नाम से प्रसिद्ध हुए। मैथिली लघुकथा में सबसे सक्रिय अनमोल झा हैं, जिनके अब तक नौ लघुकथा-संग्रह छप चुके हैं। इन्होंने भागलपुर विश्वविद्यालय से ‘मैथिली लघुकथा के स्वरूप का विश्लेषणात्मक अध्ययन’ विषय पर 2015 में शोध-प्रबंध भी लिखा। अन्य प्रमुख लघुकथा-लेखकों में, प्रदीप बिहारी, रघुनाथ मुखिया, ज्ञानवर्धन कंठ, देवशंकर नवीन, सत्येन्द्र कुमार झा, भवनाथ झा , अमलेंदु शेखर पाठक, कुंदन कर्ण, रूपम झा आदि इसे लघुकथा कहते हैं। डा.अनमोल झा के अनुसार मैथिली में लघुकथा को लघुकथा ही कहा जाता है। लेकिन इधर ‘मुन्ना जी’ आदि कुछ नए लेखक इसे बिहनि/बीहनि कथा कहते हैं। ऐसे लघुकथा-लेखकों में मनोज कर्ण ‘मुन्ना जी’, आशीष अनचिन्हार, घनश्याम घनेरो, आभा झा आदि प्रमुख हैं। गेहूं धान आदि के अंकुरित होने पर जो गाँठ दिखाई देती है, मैथिली में उसे बिहनि/बीहनि कथा कहा जाता है। एक तरह से इसे मैथिल-क्षेत्र की मिट्टी से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। मैथिली में बड़े आशयों की लघुकथाएँ कम हैं, किन्तु जीवन के छोटे-छोटे सच बड़ी मात्रा में उकेरे गए हैं।

 मिहिर झा की लघुकथा ‘सौ रूपए’ में बेटा अपने अतिव्यस्त बाप को उसके एक घंटे की तनख्वाह सौ रूपए जोड़कर देता है –“कल आप ऑफिस से एक घंटा पहले आ जाना और मेरे साथ खेलना। ”आभा झा की लघुकथा ‘ऐसा भी होता है भला ?’ में, होने वाले लालची ससुर के साथ आँख नीची कर चुप बैठे भावी पति को देख युवती पिता की ओर सजल नेत्रों से देखकर सौदेबाजी का प्रतिरोध कर कहती है –“ऐसे विवाह में मुझे कोई रूचि नहीं। ” कुंदन कर्ण की रचना ‘कुछ नहीं हुआ है’ में भाभी ने तमाचा मारा –यहसुनकर माता-पिता और बेटी कमरे की ओर भागते हैं। पता चलता है कि तमाचातो भैया ने मारा था – जानकार सब लोग वापिस आ जाते हैं, जैसे सामान्य बात हो। बहू-बेटे में भेदभाव का सहज उदाहरण है यह। जयंती कुमारी की रचना ‘भरे हाथ, खाली हाथ’ बताती है कि विवाहित स्त्री की ख़ुशी को भी हाथों में पहने कड़ों की संख्या से तौला जाता है। प्रतिरोध-स्वरूप निष्कर्ष है –“ इसका मतलब आपके और मेरे हाथ भी हमारे अपने नहीं हैं। ये भी दूसरों के अधीन हैं…फिर हमारे ऐसे गहने पहनने का अर्थ क्या है जो हमारी ख़ुशी का नहीं बल्कि किसी और के होने या न होने का प्रमाण-भर है। ” यह सटीक तर्क रचना को नई ऊँचाई और सौन्दर्य से भर देता है। देवशंकर नवीन की रचना ‘आस्था’ में आस्था के पीछे का खोखलापन दिशासूचक तर्क से उजागर किया गया है। जीवन की अंतिम साँसें गिन रहे पितामह को, कुलपुरोहित, गोदान करने को कहते हैं। उनके पास तो दमड़ी भी नहीं। तब पंडित ग्यारह रूपए औए तिल-कुश आदि की बात करता है। इस पर पोते का जवाब देखें –“पंडित जी !इस महंगाई में ग्यारह रूपए की गाय तो खुद वैतरणी पार नहीं कर पाएगी, दादाजी को क्या पार कराएगी ?”

 अनमोल झा पारिवारिक विसंगतियों के उदीयमान आंचलिक कथाकार हैं। इनकी लघुकथा ‘टेक्नोलॉजी’ में बेटा बाबूजी को नए जमाने में भी मनीऑर्डर से ही पैसा इसलिए भेजना चाहता है कि गवाही लेते समय गाँव के लोगों को पता लगेगा कि बेटे ने पैसा भेजा है। छोड़ नहीं दिया है बूढ़े को…” इनकी ही ‘बाहरी’ लघुकथा में पत्नी अपने गाँव कम और ससुराल के गाँव में उससे दोगुना समय इसलिए रहती है कि -“मायके में ही बैठ जाऊं, तो हिस्सा बखरा गया हवा में। बेलाग कह देगा –ये लोग बाहरी हैं। इनका क्या हिस्सा। ” अनमोल झा की ही लघुकथा ‘बेटा-बेटी’ बच्चों में किए जाने वाले लैंगिक भेदभाव को कुशलता से रेखांकित करती है। पहले बेटी को बुखार हुआ, फिर उसके छोटे भाई को। दवा-पथ्य शुरू हुआ, तो बुखार देखने, दवा देने – हर बात में बेटे को प्राथमिकता दी जाती। बच्ची सोचती है –“बुखार पहले उसे हुआ और वह बड़ी भी है। पहले उसका बुखार क्यों नहीं देखा जाता, पहले उसे दवा क्यों नहीं दी जाती है ?” बेटी के प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं।

सिंधी

 सिंधी, भारतीय संविधान में मान्यता-प्राप्त बाईस भाषाओँ में से एक है। भारत में सिंधी-भाषी जनसंख्या साठ लाख के करीब है। महाराष्ट्र के अलावा गुजरात और राजस्थान में सिंधी-भाषी लोग मुख्य रूप से बसे हुए हैं। सिंधी में लघुकथा के लिए ‘मिनी कहाणी’ शब्द का प्रयोग होता है। अस्सी के दशक से सिंधी में अन्य भाषाओँ की लघुकथाओं का अनुवाद नियमित रूप से होने लगा था। सन 1981 में हूँदराज बलवाणी द्वारा ‘मिनी कहाणियाँ’ नाम से हिंदी व अन्य भाषाओँ की लघुकथाओं का अनुवाद प्रकाशित कराया गया।

सन 1986 में सिंधी भाषा में दो मौलिक लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए। घनश्याम सागर का ‘जरिड़ा जरिड़ा जिंदगी’ (टुकड़ा टुकड़ा जिन्दगी) और जयंत रेलवाणी का ‘करंघे लाइ केलशयम’ (रीढ़ की हड्डी के लिए कैल्शियम) इसी वर्ष प्रकाश में आए। जयंत रेलवाणी के संग्रह में पंचतंत्र, हितोपदेश, वैताल आदि की कथाओं को नए सन्दर्भ में चित्रित किया गया है। इनके अतिरिक्त मोतीलाल जोतवाणी, वासुदेव ‘सिन्धु भारती’, रीटा शहाणी आदि सिंधी लघुकथा के प्रमुख लेखक हैं। रीटा शहाणी के संग्रह ‘रिश्तन जो रक्स’ (रिश्तों का नृत्य) कहानियाँ और लघुकथाएँ लिए हुए है। हूँदराज बलवाणी ने ‘चित पट’नाम से मौलिक संग्रह के साथ ही सिंधी की प्रतिनिधि लघुकथाओं को 1989 में ‘ज़िन्दगीअ जा अक्स’ (ज़िंदगी के प्रतिबिम्ब)नाम से प्रकाशित कराया। इधर लखमी खिलाणी, गोपाल ठक्कर, बंसी खूबचंदाणी, तीर्थ चांदवाणी आदि भी निरंतर लघुकथा-लेखन में योगदान दे रहे हैं। अनेक सिंधी पत्रिकाएँ भी लघुकथाएँ छाप रही हैं, जिनमें जलगाँव का ‘सिंधी उजाला’ (साप्ताहिक) प्रमुख है। सिंधी की लघुकथाएँ आकार में छोटी होती जा रही हैं।

कुछ सिंधी लघुकथाओं की चर्चा करते हैं। जयन्त रेलवाणी की रचना ‘सुनो धर्मराज’ में युधिष्ठिर का कथन – “हमारे जितने कष्ट किसीने नहीं सहे”- सुनकर महात्मा शल्य उन्हें कलियुग के भरत-खंड की कथा कहते हैं और सिद्ध करते हैं कि –“आप पांच भाइयों से अधिक बीसवीं सदी के उन पचास करोड़ भाइयों को कष्ट सहना पड़ रहा है। ” इस निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए सत्ता हेतु गरीबों को हटाने का लक्ष्य, अन्न घी तेल आदि भूगर्भ में छिपाना, निम्नवर्ग को मोक्षमार्ग का झुनझुना देकर शक्तिहीन करना, फिर गणतंत्र में चुनाव कराकर सत्ता पाना –इन प्रसंगों का कलात्मक निरूपण हुआ है। इनकी ही लघुकथा ‘बैताल की कथा’ आज और भी प्रासंगिक हो गई है। व्यवस्था बाज़ार से रोज़मर्रा का जरूरी सामान गायब कर देती है, फिर राशन की दुकानों से एक-एक किलो गेहूँ की थैली और दो-दो रूपए की बख्शीश बांटती है। फिर चुनाव में तो जीत होनी ही थी। हूँदराज बलवाणी की रचना ‘खेल’ में नेता नाली पर पत्थर रखकर झगड़ा करवाने और फिर सुलझाकर वाहवाही लूटने का क्रम गाहे-ब-गाहे जारी रखता है। वासुदेव ‘सिन्धु भारती’ की लघुकथा ‘कूटनीतिज्ञ’ में पापों से भरे खाते वाला नेता यमराज के कारिंदों को रिश्वत देकर, स्पेशल कान्सीड्रेशन के तहत, स्वर्गलोक के ‘एयरकंडिशन्ड पैराडाइस पैलेस’ में आनंद लूटता है।

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