विश्व पुस्तक मेले में डा.निधि अग्रवाल की उपन्यासिका ‘अप्रवीणा’ का लोकार्पण

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विश्व पुस्तक मेले में बोधी प्रकाशन से प्रकाशित हुई उपन्यासिका ‘अप्रवीणा’ का लोकार्पण भारती लघुकथा के प्रमुख हस्ताक्षर अशोक भाटिया जी के द्वारा किया गया। इस दौरान खुद डॉ. नीधि अग्रवाल सहित बोधी प्रकाशन के संयोजन माया मृग सहित अन्य साहित्यकार उपस्थित हुए।

हमेशा ही ऐतिहासिक पात्रों पर उपन्यास लेखन बहुत ही कठिन माना गया है। ऐतिहासिक स्रोतों से कोई कहानी बुन लेने में बहुत सारी परेशानियां आती हैं और हमेशा उनकी सटीकता पर सवाल उठाए जाने का डर भी रहता है। उस काल में खुद को ले जाना और जीना, इसके बिना ऐतिहासिक उपन्यास नहीं लिखा जाता, अगर लिखा जाए तो वह वर्तमान की ही कहानी होती है। लेकिन कई समीक्षक बताते हैं की डा. निधि अग्रवाल ने यह काम बखूबी किया है और शानदार ऐतिहासिक उपन्यास की रचना की है।

अप्रविणा – पर चित्रा देसाई द्वारा टिप्पणी में कहा गया है कि ‘अप्रवीणा’ बुंदेलखंड के राजा इंद्रजीत और उनकी तीन रानियों की कथा है। विशेषकर चारूलता की पीड़ा की, जिसका कारण है राजा इंद्रजीत के जीवन में आई पुनिया जो राय प्रवीण बन महल में ही नहीं पर राजा के मन में स्थापित हो जाती है। फिर वहाँ बसता है द्वन्द्व…

ये एक शाश्वत प्रश्न है। स्त्री -पुरुष सम्बन्धों में एकाधिकार की चाह निरंतर रही है। निधि पात्रों के माध्यम से इन प्रश्नों के जवाब स्पष्ट देती है। कोई लाग लपेट नहीं। चारूलता महसूस करती है कि उसके प्रेम में कटौती कर रहें है राजा इंद्रजीत तो उनसे आँखे मिला कर कहती है – ‘ प्रेम है महाराज…मन्दिर का प्रसाद तो नहीं, जिसे सबसे बाँटा जा सके। कल भी आप पर एकाधिकार चाहिए था। आज भी चाहिए। छोड़ सकते हैं पर बाँट नहीं सकते आपको!”

यहाँ बुंदेलखंड है। ओरछा है। अकबर, जहाँगीर का समय है। राय प्रवीण को जब अकबर ने अपने दरबार में आने का निमंत्रण दिया तो प्रवीण कैसे छंदों की सहायता से अपनी बात अकबर तक पहुँचाती है और अपनी बुद्धि चातुर्य से ससम्मान ओरछा लौटती है!

इतने कम पन्नों में इतनी घटनाएँ, चरित्र, प्रश्न…

और निर्भीक हो ये घोषणा करना कि -‘प्रेम हो या राज्य, सीमाओं का अतिक्रमण सदा विनाशकारी होता है’…

वंदना वाजपेयी अपनी टिप्पणी में लिखती हैं कि –

बुन्देलखंड की राय प्रवीण को भला कौन नहीं जनता होगा? लेकिन अप्रवीणा?

इसमें उन्होंने कहानी के माध्यम से खंडित प्रेम के साथ इतिहास में गुम हो गई स्त्रियों के दर्द को उकेरने, और मन को समझने का प्रयास किया हैl एक ही दर्द को झेलती दो स्त्रियों में बहनापा कैसे जुड़ जाता है, क्या वो सिर्फ किसी से ईर्ष्या जनित

स्वार्थ है या उसमें कुछ कोमल तन्तु भी हैं, जैसे प्रश्न उपन्यास के नाम से ही मन में उठा रहे हैंl इतिहास के आँचल से निकली ये एक जीवंत कथा है क्योंकि आज भी ऐसी स्त्रियाँ मिल जाएंगी l

इसी पुस्तक पर टि्वंकल तोमर सिंह का कहना है –

प्रेयसियों ने सदा साहित्य में नायिकाओं का स्थान पाया!

कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो, पत्नी या तो बेचारी हुई या फिर खलनायिका। प्रेम के ऐसे त्रिकोण में जहाँ पति, पत्नी और एक प्रेयसी हो वहाँ प्रेम का उच्चतम स्वरूप दिखाने के लिये, पति को आदर्श प्रेमी के रूप में प्रेयसी की ओर विचलन को उकेरने के लिये, पत्नी की भूमिका को सदा कमज़ोर कर दिया गया।

‘अप्रवीणा’ पति के जीवन में किसी अन्य स्त्री के प्रवेश होने के बाद किसी रानी या स्त्री की क्या मनोदशा होती है, इसे भलीभांति चित्रित करती है। पत्नी जिसने पति की गृहस्थी को इतने अच्छे से संभाला कि वह पत्नी के स्थान पर माँ स्वरूप हो गयी, पत्नी जिसने मित्र का स्थान ले लिया, नहीं बन पाई तो बस प्रेयसी!

कहानी है ओरछा के कार्यवाहक राजा इंद्रजीत , उनकी तीन रानियों की और उनकी एक प्रेयसी प्रवीण की। जहाँ राजाराम की सरकार चलती है, उस नगरी में राजा इंद्रजीत और उनकी प्रेयसी राय प्रवीण के किस्से मशहूर हैं। उनकी छोटी रानी को उनके प्रेम में बाधा के रूप में चित्रित किया जाता है। क्या यह उचित है? क्या पत्नी को पति के जीवन में आने वाली किसी स्त्री को बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लेना चाहिए?

‘अप्रवीणा’ राजा इंद्रजीत की दूसरी पत्नी चारुलता के दृष्टिकोण से लिखी गयी कहानी है। इस उपन्यासिका में न कोई नायिका है न कोई खलनायिका, है तो बस भावनाओं का सटीक चित्रण।

इसका शीर्षक बेहद सुंदर और अर्थपूर्ण हैं। राय प्रवीण हर तरह से प्रवीण है। युवा है, सौंदर्य से परिपूर्ण है, नृत्य में , गायन में, काव्य सृजन में प्रवीण है….पर चारुलता? क्या उससे मन भरने के बाद राजा को उसमें एक भी गुण नहीं दिखायी देते ?

आकुलहृदया चारुलता अंत में प्रभु की मूर्ति के समक्ष कहती है-

“मैं… न गा सकती हूँ, न नृत्य से रिझा सकती हूँ… न चित्रों को सजीव कर सकती हूँ, न किसी निर्जीव की भाँति अप्रभावित रह सकती हूँ… न मैं राधा बन कर प्रतीक्षा कर सकती हूँ, न मीरा जैसा एकतरफा प्रेम और समर्पण! रुक्मणि की भाँति मीरा और राधा की उपस्थिति से अविचलित रह ‘प्रिय’ से प्रेम करने की सामर्थ्य भी मुझमें नहीं है । जीवन के प्रत्येक युद्ध में पराजित, सर्वगुणहीन मैं, अकिंचन… आज राजसी मान त्याग, स्वयं को तुम्हें अर्पित करती हूँ । एक अप्रवीणा को अपनाने का औदार्ययुक्त पुरुषत्व क्या तुम में है प्रभु?”

यहाँ आकर शीर्षक अपना आवरण हटा कर लेखिका की बुद्धिमत्ता के आगे नतमस्तक होने पर विवश कर देता है। आवरण पर परकोटे से झांकती हुई तीन स्त्रियों के चित्र हैं, जिन्होंने घूँघट में आधा चेहरा छुपाया है, जो तीन रानियों को दर्शाती हैं। आवरण बेहद सुंदर बन पड़ा है।

उपरोक्त टिप्पणियां अपेक्षाओं के बियाबान नामक फेसबुक पेज से ली गयी हैं।

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