‘ऐसा ही’ से ‘ऐसा भी’ तक लघुकथाएँ
वर्तमान तकनीकी विकास के युग में, विश्वग्राम की परिकल्पना को मूर्त करने और दिनोंदिन उसे पुख्ता करने के लिए दुनिया भर के तमाम देश, अपने-अपने सामर्थ्य भर विकास की इस दौड़ में सहभागिता दर्ज करवा रहे हैं। विकास के नित नूतन कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, लेकिन यह विकास तकनीक केन्द्रित है, इस सत्य से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। एतदर्थ उसके अपने सामाजिक और पारिवारिक सरोकारों का एक दायरा भी है, जो उसके सांस्कृतिक बोध का खजाना समेटे हुए चलता है। उसके रीति-रिवाजों के साथ उसकी अपनी मान्यताएँ हैं, तो उसके सुख-दुख के विविध वर्ण भी इसी दायरे में आते हैं।
जीवन, फूलों की रंगीन और महकती हुई क्यारियों के बीच, रंगीन तितली का उड़ना मात्र नहीं होता है। इसमें कदम-कदम पर परीक्षा की बाधा दौड़ भी शामिल होती है। दुनिया के किसी कोने में नज़र डाली जाय, मानवीय संवेदनात्मक सरोकारों में प्रायः समानता ही मिलती है। यह समानता ही वह सूत्र है, जो संवेदनात्मक स्तर पर विश्वग्राम की एक अलग धारा का प्रवाह लेकर अनादि से अनन्त तक के लिए प्रवहमान है।
दुनिया भर की भाषाओं और बोलियों में इन्हीं भावनाओं और संवेदनाओं का रस प्रवाहित होता है, किन्तु भाषायी वैविध्य के चलते हम उससे अपरिचित रह जाते हैं। मानवीय संवेदना के स्तर पर विश्वग्राम की अवधारणा को बल प्रदान करने के लिए, भाषायी अपरिचय की इस दीवार को ध्वस्त करने की आवश्यकता होती है और इसका प्रधान औजार हो सकता है- अनुवाद।
विश्व साहित्य में सन्निहित मानवीय सभ्यता और संवेदना के दस्तावेज को अनुवाद के माध्यम से मानव मात्र के सर्वांगीण विकास के हित में सुलभ कराया जा सकता है। यह अनुवाद न केवल सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक चेतना का संचरण करते हैं, अपितु पाठक को दृष्टि बोध से सम्पन्न भी करते हैं। ज्ञान, विज्ञान, दर्शन के असंख्य ग्रन्थ अनेक भाषाओं में हमारे बीच इसलिए स्थापित हो पाये हैं, कि बोधगम्य भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ है, हो रहा है, आगे भी होता रहेगा।
दुनिया की तमाम भाषाओं की नींव में, उनकी बोलियों की ताकत होती है। हिन्दी भी इसका अपवाद नहीं है। छः अपभ्रंश समूहों में से अर्द्धमागधी एक है। इसी अर्द्धमागधी के अन्तर्गत आने वाली बोली ‘बघेली’ है। अपनी विपुल साहित्यिक सम्पदा के चलते जहाँ एक ओर अवधी ने अपनी जड़ें मजबूत कीं, वहीं राजाश्रय पाकर छत्तीसगढ़ी ने भी विकास की राह पर अपने कदम बढ़ाये। इन दोनों के बीच ‘बघेली’ एक महत्वपूर्ण बोली होने के बावजूद ‘दो पाटन के बीच’ का दंश झेलती चली आ रही है।
बघेली में हालांकि साहित्य (पद्य और गद्य) की अनेक विधाओं में सन्तोषप्रद सृजन हो रहा है, किन्तु अभी भी इसके विकास की अनन्त सम्भावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। बघेली में कहानियों का सृजन लगभग चालीस वर्ष पहले से शुरू हो चुका था, किन्तु लघुकथा विधा का प्रवेश नहीं हो पाया। एक संकल्प के रूप में काम करते हुए, मेरा बघेली लघुकथा संग्रह ‘मरना भला बिदेस का’ बघेली के पहले लघुकथा संग्रह के रूप में सन् 2021 में प्रकाशित होने के बाद, अभी तक बघेली में कुल तीन लघुकथा संग्रह आ चुके हैं। अन्य अनेक उत्साही रचनाकारों द्वारा इस दिशा में किये जा रहे कार्य, बघेली के लघुकथा साहित्य सृजन की प्रगति के प्रति आश्वस्त करते हैं।
बघेली में लघुकथाओं का व्यापक परिचय कराने की दृष्टि से, दुनिया की विभिन्न भाषाओं में लिखी गयी लघुकथाओं की बारीकियों की जानकारी उपलब्ध कराने का विचार आने पर मुझे अनुवाद का सहारा लेना उचित लगा। डॉ. अशोक भाटिया सम्पादित ‘देश-विदेश से कथाएँ’ का अध्ययन करने पर मुझे इस दिशा में आगे बढ़ने का मार्ग दिखाई पड़ा। इसी प्रयोजन को लेकर मैंने डॉ. भाटिया जी से चर्चा कर उनकी इस पुस्तक में संग्रहीत लघुकथाओं के अनुवाद की अनुमति प्राप्त की और अनुवाद कार्य में मनोयोग से लग गया।
‘देश-विदेश से कथाएँ’ पुस्तक में 19 भाषाओं में 83 लेखकों की कुल 122 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। कहना न होगा कि यह सब चुनिन्दा लघुकथाएँ हैं। इन्हीं में से कथ्य, शिल्प और स्वभाव की विविधता वाली, सत्तर विविधवर्णी लघुकथाओं का बघेली में अनुवाद इस पुस्तक में संकलित है।
अनुवाद कार्य करते समय जो सबसे बड़ी चुनौती होती है, वह है मूल की रक्षा और अनुवाद (लक्ष्य भाषा या बोली में) की स्वाभाविकता और सरसता को बचाये रखना। इस पुस्तक में उन्नीस विभिन्न भाषाओं की लघुकथाओं का अनुवाद करते हुए मेरा प्रयास रहा है, कि यह केवल भाषान्तरण भर न हो, बल्कि प्रत्येक लघुकथा बघेली में अपनी पूरी धमक के साथ प्रस्तुत हो सके।
अनुवाद करते समय इस बात का भी ध्यान रखा गया है, कि बघेली बोली के मौजूदा प्रचलित स्वरूप को ही सामने लाया जाय। भाषा या बोली कोई जड़ वस्तु नहीं है। समय और सभ्यता के साथ इनका रूप परिवर्तन भी होता है। बघेली में भी अनेकानेक विदेशी शब्द सहजता से स्थान पा चुके हैं। उन्हें मैंने यथारूप प्रयोग किया है। एक ओर जहाँ बघेली के लुप्तप्राय शब्दों को सामने ले आने का प्रयास रहा है, वहीं बोधगम्यता की दृष्टि से बघेली बोली के सैकड़ों वर्ष पुराने ठेंठ (देशज) रूपों से बचने का भी प्रयास किया गया है।
डॉ. अशोक भाटिया ने उनकी सम्पादित पुस्तक के अनुवाद हेतु मुझे न केवल अनुमति प्रदान की, अपितु पुस्तक पर अपनी लिखित सम्मति भेजकर मेरा मनोबल बढ़ाया है। उनकी इस सदाशयता के लिए मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। अनुवाद के माध्यम से विभिन्न भाषाओं और विभिन्न शैलियों की लघुकथाओं को पढ़कर बघेली अंचल के रचनाकारों में लघुकथा लेखन के प्रति एक नयी चेतना का विकास हो सकेगा। इसी विश्वास के साथ–
डॉ. राम गरीब पाण्डेय ‘विकल’
मोबाइल- 9479825125
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