लघुकथा को दो संक्रामक रोग लगे हुए हैं –एक शब्द-संख्या का और दूसरा कालदोष का’ – डॉ. अशोक भाटिया ।

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नेतराम भारती :- सर ! मेरा पहला प्रश्न है लघुकथा आपकी नज़र में क्या है ? लघुकथा को लेकर बहुत सारी बातें ‘जितने स्कूल उतने पाठ्यक्रम’  वाली स्थिति है l यदि नव-लघुकथाकारों के लिए सरल शब्दों में बताने को कहा जाए तो आप कैसे परिभाषित करेंगे ?

डॉ. अशोक भाटिया – प्रिय नेतराम भारती जी,कथा-परिवार की सबसे छोटी इकाई लघुकथा है |सबसे बड़ी इकाई उपन्यास,फिर कहानी और फिर लघुकथा |

नेतराम भारती :- सर ! आज बहुतायत में लघुकथा सर्जन हो रहा है । बावजूद इसके, नए लघुकथाकार मित्र इसकी यात्रा, इसके उद्भव ,इसके पड़ावों से अनभिज्ञ ही हैं । आपने लघुकथा पर बहुत उल्लेखनीय और प्रभावी काम किया है बल्कि कहा जाए तो आपने इसकी यात्रा को न केवल करीब से देखा ही बल्कि उसे दिलोजान से जिया भी है । कैसे आँकते हैं आप इस यात्रा को ?

डॉ. अशोक भाटिया –यह भी अकादमिक महत्व का ही प्रश्न है | कथाओं के मामले में भारत विश्व-गुरु है | लघुकथा विशुद्ध भारतीय परम्परा की देन है | इसने परम्परा से आकार लिया और समय के दबाव से समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने की प्रेरणा | इसकी यात्रा पर बात करने के लिए काफी स्पेस चाहिए,जो यहाँ संभव नहीं |इसके लिए मेरी सम्पादित पुस्तक ‘पैंसठ हिंदी लघुकथाएँ’ में ‘हिंदी लघुकथा की यात्रा’ नाम से चालीस पृष्ठों का मेरा लेख देखा जा सकता है |

नेतराम भारती :- सर ! आजकल कई प्रकार के लेखक हमें लघुकथा के क्षेत्र में देखने को मिल रहे हैं । जैसे कुछ , मात्र अपने ज्ञान , अपने पांडित्य- प्रदर्शन के लिए लिखते हैं , कतिपय समूह- विशेष को खुश करने के लिए लिखते हैं या पुरस्कार- लालसा के लिए लिख रहे हैं ।  वहीं, कुछ ऐसे भी लघुकथाकार हैं जो लघुकथा – लेखन को सरल विधा मान बैठे हैं जिसके कारण उनकी रचनाओं में न कोई शिल्प होता है और न ही कोई गांभीर्य । तो ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि साहित्य सर्जन का उद्देश्य क्या है ?

डॉ.अशोक भाटिया – साहित्य-सर्जन के अपने-अपने अनेक कारण हो सकते हैं |आचार्य मम्मट ने काव्य(साहित्य) के छह प्रयोजन(उद्देश्य) बताए थे | इतना अवश्य है कि वैयक्तिक क्रिया होने के बावजूद लेखन एक सामाजिक कर्म है,एक गंभीर दायित्व | छोटी-छोटी लालसाओं को पूरा करने के लिए लिखा गया साहित्य अपनी सीमाएं भी खुद ही बनाता जाता है और अंततः एक बृहद आलोक और व्यापक धरातल की सोच के अभाव में वह छोटे दायरे में ही सिमटकर रह जाता है | साहित्य अपने लेखक को भी रचता जाता है,उसकी संवेदना और समझ को,उसकी चेतना और रचना-शिल्प को निखारता जाता है | कथा-सम्राट प्रेमचंद की सोच और संवेदना राष्ट्रीय धरातल पर सक्रिय थी,इसलिए उनका साहित्य भी उसी स्तर पर स्थित है |

नेतराम भारती :-  सर ! एक तरफ तो कहा जाता है कि साहित्य पाठक की भाषा का भी परिष्कार करता है उसके शब्द भंडार में बढ़ोतरी करता है वहीं दूसरी तरफ साहित्य में भाषा को सहज – सरल रखने की भी वकालत की जाती है । साहित्य में विशेषकर लघुकथा में क्लिष्ट शब्दों , बिम्बों , प्रतीकों की अनिवार्यता- अधिकता होने से लघुकथा से उसके पाठक – वर्ग का मोहभंग होने का खतरा तो नहीं है ? मैं लघुकथा के पाठक की बुद्धि क्षमता पर प्रश्न नहीं उठा रहा हूंँ । मैं बस जानना चाहता हूंँ कि आप लघुकथा में भाषा के किस प्रयोग के पक्षपाती हैं ?

डॉ. अशोक भाटिया – देखिये,शब्द-भण्डार में बढ़ोतरी का सरल-सहज भाषा से कोई अंतर्विरोध नहीं है |आपके इस प्रश्न के दो पक्ष हैं |एक तो यह कि शब्द-भण्डार कहाँ से और कैसे बढ़ेगा |यह बढ़ना जरूरी है,जो नहीं हो पा रहा |समाज से,हिंदी की बोलियों से, रोज़मर्रा के शब्द लेने से भाषा समृद्ध होगी |वैसे तो पूरे हिंदी-साहित्य में ही यह प्रवृत्ति कम हुई है,लेकिन लघुकथा में इसका घोर अभाव है |ऐसी शब्दावली का सहज समावेश पाठकों को ज्यादा आकर्षित करेगा |दूसरा पक्ष भाषा के परिष्कार का है |रचना की भाषा कृत्रिम नहीं होती,हाँ उसका वाक्य-विन्यास व्याकरण के अनुरूप हो | समय,स्थिति और पात्रों के अनुरूप भाषा का प्रयोग होना जरूरी है |भाषा व्याकरण-सम्मत हो|इसका एक अन्य पक्ष यह है कि अनपढ़ या अपनी बोली में बात कहने वाले पात्रों पर व्याकरण की कसौटी लागू नहीं होती |उनकी अपनी स्थितियां है और अपने भाव व्यक्त करने की अपनी शैली |तो भाषा की सरलता और सहजता का यह भी एक पक्ष है,जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता |चित्रा मुद्गल की ‘गरीब की माँ’ जैसी अनेक लघुकथाएँ इसके पक्ष में रखी जा सकती हैं |हाँ,जिसे आप शुद्ध या परिष्कृत भाषा कह रहे हैं,वह साहित्य की आलोचना(समालोचना) पर लागू होती है |

नेतराम भारती :- सर!आप जैसे विद्वान मनीषी लघुकथा के लिए ‘लघुता में प्रभुता’ की बात करते हैं । आजकल देखने में आ रहा है कि लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर पूर्व की भांति सीमांकन नहीं है बल्कि एक लचीलापन देखने में आ रहा है । अब आकार की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल है । कह सकते हैं कि जिस प्रकार एक नाटक में उसका रंगमंच निहित होता है उसी प्रकार एक लघुकथा में भी उसके कथ्य ,  उसके शिल्प में उसकी शब्द सीमा निहित रहती है । मैं छोटी बनाम लंबी लघुकथाओं की बात कर रहा हूंँ । आप इसे किस रूप में देखते हैं ?

डॉ. अशोक भाटिया :- नेतराम जी,आप ठीक कह रहे हैं | लघुकथा की शब्द-सीमा को लेकर एक लचीलापन देखने में आ रहा है | इसे हालांकि पहले आ जाना चाहिए था | हिंदी में इसकी शब्द-सीमा तय करने की कोशिश की गई,जो रचना-विरोधी बात थी |पंजाबी मिन्नी कहानी में बाहरी सीमा पर अंकुश लगा रहा,जिसकी रचनात्मक हानि हुई |शब्द-सीमा की इस जकडन को अभी भी वहां महसूस किया जा सकता है |
   मेरा एक लम्बा लेख है –‘लघुता में प्रभुता’|इसमें कोई शब्द-सीमा की बात नहीं की गई |यहाँ ‘लघुता’ का आशय कहानी से आकार में छोटी कथा-रचना से है |आप कह रहे हैं कि लघुकथा में अब ‘आकार की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल है’, तो सही कह रहे हैं |लघुकथा में शब्दों की बात करना ही बेमानी है |इसी लचीलेपन पर बल देने के लिए ही मुझे दो विस्तृत लेख लिखने पड़े | एक है –‘लघुकथा के लघु आकार में लघुकथाएँ’,जिनमें सौ शब्दों तक की लघुकथाओं की संरचनाओं का विवेचन-विश्लेषण हुआ है |दूसरा लेख है – लम्बी लघुकथाओं की संरचना |’इसमें पांच सौ से अधिक,एक हजार शब्दों तक की 81 लघुकथाओं का विवेचन है और ‘लघुकथा:आकार और प्रकार’ के पीछे भी वे सभी लघुकथाएँ दे दी गई हैं |लेकिन लेख को पढ़े बिना इसमें ‘लम्बी’ शब्द पर विवाद खड़ा करने के प्रयास हुए |बलराम अग्रवाल ने कहा कि अभी इस पर बात करने का समय नहीं है |’लेकिन जो स्थितियां और सवाल हमारे सामने हैं,उन पर आज ही बात करना जरूरी है |’लम्बी’ शब्द के स्थान पर अब मैंने ‘छोटे आकार की’ की तर्ज़ पर ‘बड़े आकार की’ का प्रयोग किया है,जिसे मेरी आने वाली आलोचना-पुस्तक ‘लघुकथा की संगत’ में देख सकते हैं |ये दोनों लेख अपनी पुस्तक ‘लघुकथा:आकार और प्रकार’ में साथ-साथ इसलिए रखे ताकि नये लेखक एक वाक्य से लेकर लगभग एक हजार शब्दों तक की कथा-रचनाओं को पढ़ें और मन में बिठा लें कि शब्द-सीमा की चर्चा ही बेमानी है |ये सभी ‘लघुकथा’ के दायरे में ही आती हैं |मेरा इतना ही मकसद था |न तो बहुत कम शब्दों में लिखी गई खलील जिब्रान,टैगोर,टॉलस्टॉय,ब्रेख्त,कार्ल सैंडबर्ग,मंटो,हरिशंकर परसाई,रमेश बत्तरा,उदय प्रकाश आदि की कथा-रचनाओं पर सवाल उठाया जा सकता है,न ही विष्णु प्रभाकर,हरिशंकर परसाई,चित्रा मुद्गल,सुधा अरोड़ा,जानकीवल्लभ शास्त्री,मुकेश वर्मा आदि प्रमुख कथाकारों की आकार में बड़ी कथा-रचनाओं पर ही |
सच यह है कि साहित्य की किसी भी गद्य-विधा में शब्दों की सीमा पर कभी बात नहीं की गई|लघुकथा में ऐसे झंडाबरदार रहे हैं,तो खामियाजा भी हम व्यर्थ चर्चा और गलत दिशा के रूप में भुगत रहे हैं |लघुकथा तो भुगत ही रही है |

नेतराम भारती :- सर ! कई बार लघुकथा पर सतही और घटना- प्रधान होने के आरोप लगते रहे हैं , इससे कैसे बचा जाए ?

डॉ.अशोक भाटिया – इस प्रश्न के भी दो पहलू हैं |एक तो जैसा आपने कहा,हिंदी में सतही और घटनाप्रधान लघुकथाओं की भरमार है,जिससे इनकार नहीं किया जा सकता |इसके पीछे भी अनेक कारण काम कर रहे हैं |लेखक का कोई बड़ा और सामजिक-साहित्यिक लक्ष्य न होना एक कारण है |दूसरा पक्ष यह,कि जब ऐसी ही लघुकथाएँ सामने देखेंगे,उनके लेखकों को सम्मानित होते हुए देखेंगे,तो वैसा लेखन बेहतर मानकर दूसरे भी इस मैदान कूद पड़ेंगे |ऐसा बहुत हुआ है |
लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है |बेहतर और श्रेष्ठ लघुकथाएँ होने पर भी वे सामने नहीं आ पा रहीं |इसके भी अनेक कारण हैं |पहुँच न होना,समझ न होना,समझने की जरूरत न समझना,अपने गुट का न होना,दूसरे को न उभरने देना आदि अनेक कारण हैं ,जिससे श्रेष्ठ रचनाएँ एक हद तक उपेक्षित हैं |किन्तु देर-सबेर वे सामने आती ही हैं और आ भी रही हैं |
एक पक्ष और भी है |घटनाप्रधान लघुकथा होने में क्या दिक्कत है ?रचना में किस पक्ष की प्रधानता हो या न हो,यह लेखक तय करेगा और लेखक से वह रचना तय करवाएगी |घटनाप्रधान लघुकथा भी बेहतर क्यों नहीं हो सकती ?मान लीजिए आज किसी और तत्व की प्रधानता वाली लघुकथाएँ लिखी जाने लगी हैं,तो इसका अर्थ यह नहीं कि केवल वैसी ही रचनाएँ श्रेष्ठ होंगी और वह श्रेष्ठ होंगी ही |और इससे पहले अगर किसी और तत्व या पक्ष की प्रध्यानता वाली लघुकथाओं का दौर रहा होगा,तो उस दौर की लघुकथाओं को आज के दौर के आधार पर ख़ारिज नहीं किया जा सकता |दरअसल असल बात रचना का विषयगत और शिल्पगत निर्वहण है,जो उसकी सफलता-असफलता का,श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता का निर्धारक होता है |हाँ,सतही लेखन के पक्ष में यही कहा जा सकता है कि इसे उत्साहित नहीं किया जाना चाहिए |

नेतराम भारती :-  सर ! लघुकथा में लेखकों की संख्या लगातार बढ़ रही है परंतु उस अनुपात में समीक्षक- आलोचक दिखाई नहीं देते । आज लघुकथाकार ही समीक्षक का दायित्व भी निभा रहा है । ऐसे में , क्या किसी भी विधा के विस्तार के लिए , स्वस्थ विमर्श और कुशल विमर्शकारों का आगे न आना चिंता की बात नहीं है ?

डॉ.अशोक भाटिया – लेखकों की संख्या से नहीं,बेहतर रचनाओं से ही साहित्य का कोई रूप स्थापित होता है |ऊपर का प्रश्न सतही लेखन का था,इससे पहले आपने शिल्प और गंभीरता न होने की बात भी उठाई |ऐसे में कोई विवेकशील और मुख्यधारा का आलोचक लघुकथा की तरफ क्यों देखेगा ?सच यह है कि लघुकथा की गंभीर साहित्यिक धारा रही तो आरम्भ से ही है,लेकिन सतही लेखन के मुकाबले उभरकर नहीं आ रही |इसका एक बड़ा कारण यह है कि सतही लेखन वाले अपना प्रचार खूब करते हैं |
  जहाँ तक समीक्षा/आलोचना का प्रश्न है,हिंदी साहित्य के पहले बड़े इतिहासकार और आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के पहले संस्करण में छायावाद को उपेक्षित किया,जबकि उसमें प्रसाद,निराला,पन्त जैसे दिग्गज कवि लिख रहे थे |लेकिन लगातार और श्रेष्ठ काव्य-रचनाएँ देखकर दूसरे संस्करण में शुक्ल ने छायावाद की खूब प्रशंसा की |इस दृष्टि से देखें,तो लघुकथा-साहित्य अभी उतनी बड़ी दस्तक नहीं दे पाया है,कि प्रमुख आलोचक इसकी तरफ आकर्षित हों | भविष्य में ऐसा हो भी सकता है |प्रसाद और निराला ने तो स्वयं ही आलोचना का भी दायित्व उठाया |जयशंकर प्रसाद की पुस्तक ‘काव्य-कला तथा अन्य निबंध’ सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की पुस्तक ‘पन्त और पल्लव’विशेष रूप से चर्चित हुईं |क्या हम लघुकथाकार यह काम ईमानदारी से कर रहे हैं? उत्तर आशाजनक नहीं है |प्रेमचंद ने अपने समकालीन जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक धरातल के प्रसिद्ध नाटक ‘स्कंदगुप्त’ के बारे टिप्पणी में लिखा था कि ‘इन गड़े मुर्दों को उखाड़ने की क्या जरूरत है ?’ क्या आज लघुकथा-क्षेत्र में इस प्रकार बेबाक मंतव्य दिए जा रहे हैं ? नहीं |अपने गुट के एक लेखक के बारे दूसरा कोई ऐसी टिप्पणी कर दे,तो तय है कि उस गुट का कोई दूसरा लेखक ज़हर उगलने लगेगा |भई,आपका नाम आ गया,तो मैं ईमानदार लेखक,नहीं तो मेरी समीक्षा/आलोचना-पुस्तक कूड़ा है |यह हिंदी लघुकथा का हाल है | किसी दूसरे लेखक की अच्छी लघुकथा की प्रशंसा करते हुए,उसके सुंदर पक्षों का विवेचन करते हुए नानी मरती है,तो किसी और से क्या उम्मीद करें |
सच यह भी है,कि साहित्यिक,कलात्मक और सौन्दर्य-सृष्टि की दृष्टि से लघुकथा-साहित्य को अभी बहुत समृद्ध होना होगा ,तभी आलोचक-वर्ग का ध्यान उधर जा पाएगा |आलोचक सब देख रहे हैं |बहुत-सी प्रमुख पत्रिकाओं में लघुकथाएँ आती ही हैं |

नेतराम भारती :- सर ! गुटबंदी, खेमेबंदी की बातें आजकल कोई दबे स्वर में तो कोई मुखर होकर कर रहा है । क्या वास्तव में लघुकथा में खेमे तन गए हैं ?  निश्चित रूप से आप जैसे लघुकथा के संरक्षकों के लिए यह बहुत पीड़ाजनक है । आप इस पर क्या कहना चाहेंगे ?

डॉ.अशोक भाटिया – चौधरी बनने का कीड़ा गुटबाजी के रूप में सामने आता है |निजी स्वार्थ टकराते हैं,तो खेमे बनने लगते हैं |यह लघुकथा के लिए विशेष रूप से हानिकारक है,क्योंकि इसका पहले ही व्यापक प्रसार और स्वीकार नहीं है |गुटबाजी का विचारधारात्मक आधार तो समझ में आता है |लेकिन किसी वैचारिकता के बिना  लघुकथा में उठापटक और निजी स्वार्थ का धरातल और भी निराशाजनक है |एक को  विशेषांक सम्पादित करने का दायित्व मिला, तो चार छह लेखकों ने असहयोग का निर्णय लिया -“इसे सम्पादन का दायित्व क्यों ?” सन 2010-11 में ‘हरिगंधा’ के लघुकथा-विशेषांक सम्पादित करते हुए मुझे ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़ा |इसी प्रकार लेख या पुस्तक में किसी लेखक का एक गुट की  अपेक्षानुसार वर्णन नहीं हुआ,तो उसके गुट के व्यक्ति द्वारा किसी बहाने उसके खिलाफ लिखने लगना |यह भी ‘समकालीन हिंदी लघुकथा’ पुस्तक आने के बाद मेरे अनुभव में  जुड़ा|और अगर गुटबाजी की गोष्ठियां या रिपोर्ट देखनी हों,तो ‘संरचना’ के 2015-16 से 2020-21 तक के अंकों में ‘संरचना’ पर छपी रिपोर्ट देख सकते हैं |फिर भी,सब कुछ तो ऐसा नहीं है, खेमेबाजी से ऊपर उठकर भी काम हुए हैं | समावेशी भाव से किया गया काम ही स्थायित्व की अधिक संभावनाएं लिए होता है |

नेतराम भारती :- सर ! लघुकथा आज एक विधा के तौर पर स्थापित हो चुकी है । बावजूद इसके अभी भी इसकी पहुंँच , पाठकों में इसके प्रति अभिरुचि उतनी नहीं है जितनी इस दौरान हो जानी चाहिए थी । पाठकों तक लघुकथा की अधिकाधिक पहुंँच और उनमें इसके प्रति जुड़ाव और जिज्ञासा को बढ़ाने के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे ?

डॉ.अशोक भाटिया – लघुकथा एक ऐसा माध्यम है,जो पाठकों में साहित्य के प्रति (कम-से-कम) प्राथमिक रूचि तो उत्पन्न कर ही सकता है |लघुकथाएँ पढ़ने वाले पाठकों की संख्या बहुत है,बल्कि अख़बारों और पत्रिकाओं में कई पाठक पहले लघुकथाएँ पढ़ते हैं |लेकिन बहुत कम लघुकथाएँ ऐसी हैं,जो इनको याद रह जाने वाली होती हैं |पाठक बनने में पहली दिक्कत तो यही है |आपने पाठकों तक लघुकथा की पहुँच का बड़ा जरूरी सवाल उठाया है |दरअसल इसके लिए लेखक-वर्ग में जो तड़प और सामाजिक जिम्मेवारी होनी चाहिए,वह बहुत कम में मिलती है |पाठक तक न पहुँच पाना और पाठक न बन पाना- ये दोनों मुद्दे अलग भी हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए भी हैं |किताब के तीन क़दम हैं – सामग्री,प्रकाशन और मूल्य |किताब का चौथा क़दम है पाठकों तक अपनी किताब लेकर जाना |ये पाठक सिर्फ गोष्ठियों-सम्मेलनों तक सीमित नहीं हैं |ये तो मुट्ठी-भर लेखक-वर्ग ही है |हम सब अपने से सवाल करें कि क्या हम अपनी या दूसरे लेखकों की लघुकथा-विषयक (अन्य विषयों की भी ) चुनिन्दा किताबें लेकर आम पाठकों के बीच कभी गए हैं या जाते हैं ? अधिकतर लेखक और प्रकाशक इस काम से दूर हैं |लघुकथा के क्षेत्र में ऐसी पुस्तकें हैं,जिन्हें पाठक खूब पसंद करेगा और करता है |पर जब हम अपने और अपने चार दोस्तों के लिए ही लिखेंगे और उन तक अपना लिखा पहुँचाकर ही संतुष्ट हो जाएँगे,तो पाठक कहाँ से बनेंगे ?सोच और संवेदना ही इतनी सीमित है तो पाठक कहाँ से बनेंगे ?पाठक ऐसी लघुकथाओं का पाठक बनकर करेगा भी क्या ?
  लेकिन बड़ी सोच,बड़े आशयों की लघुकथाएँ भी निरंतर लिखी जा रही हैं |जैसा पहले कह आया हूँ,कि इनकी संख्या कम जरूर है |लेकिन पाठक के जहन में बसने की क्षमता के कारण इनकी सामाजिक उपयोगिता बहुत अधिक है | ज्यादा से ज्यादा सामान्य पाठकों तक ऐसा लघुकथा-साहित्य ले जाने की कवायद हम सब लेखकों को करनी होगी |जो लघुकथा लेखक ‘महानता’ या ‘आत्ममुग्धता’ के कमरे में घुसे बैठे हैं,वे उससे बाहर निकलें और पाठकों तक लघुकथा की पहुँच को बढ़ाने में अपनी भूमिका सुनिश्चित करें |

नेतराम भारती :- सर !मैं जानता हूँ आप जैसे विद्वान और  शुभचिंतक लघुकथा को वैश्विक स्तर पर फलता -फूलता हुआ देखना चाहते हैं फिर भी, लघुकथा के ऐसे कौन- से क्षेत्र हैं जिन्हें देखकर आपको लगता है कि अभी भी इनपर और काम करने की आवश्यकता है ?

डॉ.अशोक भाटिया – लघुकथा के सभी क्षेत्रों में ही खूब काम करने की आवश्यकता है |काम अभी बहुत कम हुआ है |एक उदाहरण से बात स्पष्ट करता हूँ |कहानी में अब तक कई कोश निकल चुके हैं |महेश दर्पण के ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी कोश’(दो भाग,1988) से लेकर संतोष चौबे और मुकेश वर्मा के ‘कथादेश’(18 खंड,2019)तक यह यात्रा जारी है |हिंदी-लघुकथा के क्षेत्र में श्रेष्ठ लघुकथाओं के कोश कहाँ हैं ?हम जानते हुए भी कमजोर लेखकों या कमजोर रचनाओं को क्यों उठाए फिरते हैं ? गुटबाजी या छोटा-सा लाभ पाने के लिए ऐसी लघुकथाओं को शामिल करने की प्रवृत्ति पर लगाम लगानी पड़ेगी |यहाँ तो यह हाल है कि कोई एक सम्मान या यात्रा-लाभ की संभावना देखकर औसत लघुकथा को ‘अद्भुत’ विशेषण से नवाज़ देते हैं |
तो लघुकथा में तो अभी हर क्षेत्र में काम करने की जरूरत है |

नेतराम भारती :- एक और प्रश्न । यह शायद सभी लघुकथाकार मित्रों के जहन में घुमड़ता होगा कि आमतौर पर पत्र-पत्रिकाओं और लघुकथा आधारित प्रतियोगिताओं में एक शर्त होती है कि लघुकथा अप्रकाशित , मौलिक व अप्रसारित ही होनी चाहिए । इस आलोक में प्रश्न यह उठता है कि क्या एक बार रचना प्रकाशित हो जाने के बाद , अपनी उपयोगिता बड़े पाठक वर्ग , बड़े मंचों या अन्य पत्र-पत्रिकाओं या आलोचकों- समीक्षकों की प्रशंसा- आलोचना को प्राप्त करने का हक खो देती है ? क्या उस लघुकथा का पुनः प्रयोग नहीं किया जा सकता है ? इस पर आप क्या कहेंगे ?

डॉ. अशोक भाटिया :- देखिए, लघुकथा-आधारित प्रतियोगिताओं  में अप्रकाशित रचना की मांग अनुचित नहीं है |नहीं तो वही प्रकाशित रचनाएँ जगह-जगह बार-बार देखने को मिलेंगी | राष्ट्रीय स्तर पर हर कहानी-प्रतियोगिता में हमेशा अप्रकाशित रचनाएँ ही शामिल होती हैं |
आपके प्रश्न का दूसरा भाग भावुकता से भरा है |एक बार प्रकाशित हुई लघुकथा का उपयोग क्यों नहीं किया जा सकता?|किसी भी साहित्यिक विधा की श्रेष्ठ रचनाएँ बार-बार छपती हैं और छपनी चाहिएं |अनुवाद के माध्यम से देश-विदेश का श्रेष्ठ साहित्य विश्व-भर में पढ़ा जाता है |टॉलस्टॉय,चेखव,ओ’हेनरी और लूशुन आदि  कितने ही साहित्यकारों का कथा-साहित्य विश्व की धरोहर बन चुका है |यही क्यों,इसमें मोपासां,टैगोर,काफ्का,हेमिंग्वे,ऑस्कर वाइल्ड,फणीश्वरनाथ रेणु आदि कितने ही बड़े रचनाकारों के नाम जोड़े जा सकते हैं |और फिर साहित्य तो नित्य नूतन होता है,क्योंकि यह शक्ति का साहित्य है |हम कबीर,तुलसी,निराला,प्रेमचंद आदि को जाने कितनी बार पढ़ चुके हैं |सवाल दरअसल श्रेष्ठ और क्लासिक साहित्य का है |अच्छे साहित्य का पाठकों पर और पाठकों का अच्छे साहित्य पर अधिकार और प्रभाव  हमेशा रहता है |

नेतराम भारती :- सर ! लघुकथा में अक्सर कालखंड को लेकर बातें चलती रहती हैं ,कालखंड दोष को लेकर विद्वानों में मतैक्य देखने में नहीं आता है । लघुकथा अध्येता को कभी इसकी शास्त्रीय व्याख्या सुनने को मिलती है तो कभी सीधे-सीधे लघुकथा ही ख़ारिज कर दी जाती है । उसे इस दुविधा और भ्रम से निकालते हुए सरल शब्दों में बताएं कि यह कालखंड दोष क्या है और इससे कैसे बचा जा सकता है ?

डॉ. अशोक भाटिया – यह लघुकथा के तथाकथित पंडितों का दिया हुआ जुमला है,जिसकी कोई जरूरत नहीं है |इस प्रत्यय ने लघुकथा का बड़ा अहित किया है |लघुकथा को दो संक्रामक रोग लगे हुए हैं –एक शब्द-संख्या का और दूसरा कालदोष का |जैसे कोरोना चीन की देन है,ऐसे ही लघुकथा में कालदोष जगदीश कश्यप और सतीशराज पुष्करणा की देन है |इसका खामियाजा हम यहाँ तक भुगत रहे हैं कि लघुकथा को एक क्षण की या एक ही स्थिति की रचना माना जाने लगा है और नीम हकीम इतने हो गए हैं कि इस आधार पर एक मिनट में रचना को ख़ारिज करने पर अमादा हो जाते हैं |
आइए,इस पर विस्तार से बात करें |कोई रचना जब अपने उद्देश्य के आसपास ही विकसित होती हुई संपन्न हो जाती है,तो वह एक मुकम्मल रचना होती है |वह चाहे एक क्षण की हो,कुछ दिन की हो या वर्षों की ही क्यों न हो |उसमें कालदोष जैसी हवाई बीमारी को ढूँढा नहीं जा सकता |काल नदी की तरह निरंतर प्रवहमान रहता है |उसे स्थिर रूप में या एक क्षण-विशेष में ही देखना स्वयं में दोषपूर्ण इसलिए है कि इससे रचना का प्रवाह,उसकी प्रक्रिया की गति ,उसके अपने कथ्य तक पहुँचने की गति बाधित होती है|किसी भी विधा की किसी भी रचना को समय-सीमा में नहीं बाँधा जा सकता |आप लघुकथा को एक क्षण या एक स्थिति में क्यों बाँध रहे हैं ?ऐसा करके आप अनेकानेक रचना-भ्रूणों की अनाम हत्या के भागी बन रहे हैं,जो इस कालदोष के भूत के बिना जन्म ले सकते थे |अपनी एक लघुकथा से बात स्पष्ट करता हूँ |लघुकथा है –‘बंदर’,जिसे बलराम अग्रवाल ने मेरी चुनिन्दा लघुकथाओं की पुस्तक ‘सच के आर-पार’ का चयन करते हुए इसे शुरू में शामिल किया है |इसमें एक जरूरतमंद बन्दे को उसका मित्र कहता है कि वह उसे मिट्टी से सोना बनाने की तरकीब बता सकता है |पर एक शर्त है कि सोना बनाते समय उसे बन्दर के बारे में नहीं सोचना |कहकर मित्र तो चला गया |लेकिन जरूरतमंद को अब हर समय बन्दर के ही ख्याल आने लगे,यहाँ तक कि सपनों में भी |इसलिए वह सोना बनाने की युक्ति सीखने का ही साहस नहीं कर पाया |यहाँ तक कि उसे बन्दर से ही दहशत होने लगी |लघुकथा के क्षेत्र में कालदोष ही वह बंदर है,हवाई और अनावश्यक,लेकिन हर समय नये लेखकों के सिर पर सवार |
         अब आपको इस तथाकथित कालदोष को धता बताने वाली,प्रसिद्ध लघुकथा-लेखकों की कुछ लघुकथाओं से उदाहरण देता हूँ कि कालदोष कितनी बेवजह की और वाहियात चीज़ है |विष्णु प्रभाकर की पुस्तक ‘सम्पूर्ण लघुकथाएँ’(2009)के पृष्ठ 103 पर लघुकथा है –‘भगवान् और पुजारी’|एक अछूत जाति के व्यक्ति ने मंदिर में जाना चाहा,तो उसे रोककर कहा गया कि  दो साल तक तपस्या करो,फिर आओ |वह अपने घर लौट गया |यहाँ लेखक के शब्द देखें –“फिर धीरे-धीरे दिन बीतने लगे |एक वर्ष बीता,दो वर्ष बीते,तीसरा वर्ष भी बीत गया |” यहाँ बहुत-से नये लघुकथा-लेखक कहेंगे कि यह कालदोष है |अब वे विख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभाकर से भी ज्यादा समझदार हैं,तो वे जानें !
  दूसरी लघुकथा भारत के शीर्षस्थ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की है |नाम है –‘बात’,जो परसाई रचनावली के खंड दो में संकलित है |इसके कुछ वाक्य बीच-बीच में से उद्धृत करते हैं –“उस दिन सुबह रमेश मिले|” ”दोपहर को दिनेश मिले |” “शाम को कमलेश मिले|” ”दूसरे दिन सुबह रामलाल मिले|” ”दोपहर को शामलाल मिले|” “शाम को मोहनलाल मिले|” “दो दिन बाद वर्मा जी आ गए |”अब आप बताएं |रचना तीन दिन तक फैली है,तो किसी को क्या दिक्कत है |मध्यवर्गीय समाज के पेट में बात नहीं पचती – इस सच को रचना के जरिए दिखाने का यही तरीका परसाई जी को सबसे उपयुक्त लगा |तो क्या आप इसमें कालदोष कहकर इसे ख़ारिज करेंगे ? परसाई जी से भी समझदार कोई है,तो वह जाने |असल बात यह है कि हम पढ़ते ही नहीं हैं |अध्ययन तो उससे अगला क़दम है |अगर ऐसी रचनाएँ पढ़ें,उनका अध्ययन करें और इस प्रक्रिया में अपनी कालदोष या अन्य शंकाओं को सामने रखें,तो बहुत से समाधान तो इन रचनाओं से ही मिल जाएँगे |परसाई की ही एक अन्य लघुकथा है –‘खेती|”इसके भी कुछ वाक्य देखें-“सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे और एक साल में खाद्य में आत्म-निर्भर हो जाएँगे |दूसरे दिन कागज़ के कारखानों को दस लाख ए

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